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ज्ञानदास
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तीत्थंकर त्रेवीसमो पुरिसादाणी पास, कामकुंभ चिंतामणि वंछित पूरइ आस । मंगलकरण मनोहरु प्रभावती भरतार, चरण नमुं हूं तेहना विघन निवारण हार । काशमेरु मुखमंडणी रूपइं झाकझमाल, सुरनरपन्नग रंजवइ वाहती वेलि रसाल। हंसासणि सा सरसती पंडित कहइ तत्काल, पाय नमुहूं तेहना आपइ वाणि विसाल ।
रूपसेनकुमार नो सुणज्यो सार अधिकार, सांभलस्ये ते आवस्य जिममालति मधुकार । सरस सुधारस सारिखा, भावभेद भंडार, षट्खंड ज छत्रे सोहामणा, रस केरा अंबार । श्रोतानइ संभलावता कविता सरस सवाद,
मूरख आगलि मांडता महिषी आगलिनांद । कवि को अपने कविकर्म के साथ सहृदय श्रोताओं पर: जितना विश्वास है उतना ही मूर्तों के आगे काव्य-निवेदन करने का अनुत्साह भी है । मूखों के आगे काव्य की उपमा भैंस के आगे नांद से बड़ी स्वाभाविक है। गुरुपरंपरा-श्री अंचलगछ राजीउ अ, गुणमहिमा करि गाजिउ ओ,
श्री धर्ममूर्ति सूरीसरु अ, तास गुणमणि आगर सीसू , उवज्झाय विमलमूरती , तास सीस विद्यावलि सरसति मे,
गुणमूरति वाचकवरु ओ, तास सीस ज्ञान मुनीसरु । रचनाकाल संवत सोल चउराणु रे, आसो सुदी उदार,
पांचमिदिन पूरो थयो रे, छठो खंड श्रीकार । इग्यारढाल प्रथम भणी रे, बीजइ दश दश पन्न,
शेष नव नव जाणीइ रे, सर्व थइ अट्ठावन्न । रूपसेन ने अपने पुण्य प्रताप से सभी ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त किया; अन्तमें दीक्षा ली और मुक्ति को भी प्राप्त किया। कवि लिखता है
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