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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्तवन, बीसी, चौबीसी आदि न जाने कितने रूपों में इस प्रकार का प्रचुर साहित्य रचा गया है । रास, चौपाई और चरित काव्यों का चरमोत्कर्ष भी इसी काल में दिखाई पड़ता है । इन सबका परिचय यथास्थान इस खण्ड में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
इस काल में पद्य के अतिरिक्त गद्य की भी प्रगति हुई । जिन लेखकों ने पद्य और गद्य दोनों विधाओं में साहित्य सृजन किया है उनकी रचनाओं का एकत्र ही परिचय दिया जा रहा है । अज्ञात लेखकों की गद्य रचनाओं का नामोल्लेख अलग से किया जा रहा है । संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखित मूल रचनाओं का अनुवाद और उन पर टीका, टब्बा, बालावबोध आदि भी इस काल में काफी संख्या में लिखे गये ।
यह विशाल गद्य-पद्यात्मक साहित्य जिस दृढ़ पीठिका पर आधारित है, उसका संकेत करना आवश्यक मानकर १७वीं शताब्दी की राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थिति का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है ।
१७वीं शताब्दी को राजनीतिक स्थिति - इस शताब्दी में मुख्य रूप से मुगल सम्राट् महान् अकबर और जहाँगीर का शासन था । भारतीय इतिहास में यह काल सुव्यवस्था, सुखशान्ति और धार्मिक सहिष्णुता के लिए स्मरणीय है जिसकी पीठिका पर मिलीजुली संस्कृति, साहित्य और समन्वित कलाओं का सुन्दर विकास संभव हुआ । १६वीं शताब्दी का अन्तिम चरण बड़े उथल-पुथल और सत्ता परिवर्तन का समय था । १३वीं शताब्दी से चली आ रही मुसलमान सुलतानों की शासन परम्परा सं० १५८३ में बाबर के हाथों इब्राहीम लोदी की पराजय के साथ समाप्त हो गई । इन सुल्तानों की धार्मिक कट्टरता के चलवे शासन कार्यों में मुल्ला-मौलवियों का वर्चस्व था । हिन्दू प्रजा के प्रति उनका वर्ताव न केवल उपेक्षापूर्ण अपितु क्रूरतापूर्ण भी था । इसलिए इनके शासनकाल में प्रजा घुटन का अनुभव करती रही । अतः कला-साहित्य और संस्कृति के विकास की कोई प्रेरणा नहीं थी । इस अलगाव, घुटन और कुंठा को दूर करने के लिए सूफी संतों और वैष्णव भक्तों ने अवश्य महत्वपूर्ण कार्य किया और एक ऐसा अनुकूल वातावरण बनाने में योगदान किया जिससे दोनों कौमें क्रमशः नजदीक आई और इसीलिए अकबर के प्रयत्नों से एक साझी संस्कृति का स्व
रूप उभर सका ।
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