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उपोद्घात साहित्य सृजन की दृष्टि से विक्रम की १७वीं शताब्दी का विशेष महत्व है। इस शताब्दी में अनेक सुकवि हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं से साहित्य को सम्पन्न किया । हिन्दी में सूरदास, नन्ददास, तुलसीदास, केशवदास और रसखान आदि; मराठी में तुकाराम, विष्णुदास और रामदास आदि; राजस्थानी में राजा पृथ्वीराज, दुरसा आढा, ईसरदास आदि और मरु-गुर्जर जैनसाहित्य में बनारसीदास, महात्मा आनन्दघन, जिनचन्द्रसूरि, हीरविजयसूरि और महोपाध्याय समयसुन्दर आदि सैकड़ों महाकवि और धर्मप्रभावक आचार्य हुए। इसलिए यह शताब्दी हिन्दी साहित्य की तरह मरुगुर्जर जैनसाहित्य का भी स्वर्णकाल है । इस काल के जैनरचनाकारों की संख्या सहस्राधिक है, जिन्होंने नाना शैलियों, काव्यरूपों और विधाओं में प्रभूत साहित्य का सृजन किया जो साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। इन रचनाओं में जैन धर्म के प्रभावक आचार्यों और ऐतिहासिक महापुरुषों से सम्बन्धित घटनाओं का तथ्यपूर्ण वर्णन मिलता है। इन कृतियों से जैन लेखकों की इतिहास सम्बन्धी अभिरुचि और ईमानदारी का भी पता चलता है। __इस काल में चरितकाव्य, वीरकाव्य और प्रेमकाव्य के साथ-साथ पर्याप्त साम्प्रदायिक साहित्य भी लिखा गया। इस शताब्दी का लोकसाहित्य भी बहुत ही सम्पन्न है। सिंहविजय कृत सिंहासन बत्तीसी, कुशललाभ कृत माधवानल-कामकंदला और ढोलामारु रा दूहा; सिंहप्रमोद कृत वैताल पच्चीसी, वच्छराज कृत पंचोपाख्यान तथा मालदेव कृत विक्रमचरित आदि इस समय की कुछ प्रसिद्ध लोक साहित्य की रचनायें हैं। इनमें से कुछ रचनायें विशेषरूप से राजस्थानी और गुजराती लोकजीवन से ली गई हैं जैसे-हेमरत्नकृत 'गोराबादल. कथा', मंगलमाणिक्य कृत 'खापराचोररास' और भद्रसेन कृत 'चंदन मलयागिरि रास' । इसी प्रकार कुछ रचनायें इन प्रदेशों की जैन जनता में ही विशेष लोकप्रिय हैं; जैसे-केशवमुनि कृत सावलिंगा रास आदि ।
भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप इस शतक के जैन साहित्य में एक विशेष प्रकार के पूजा-साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। पूजा, स्तुति, स्तोत्र
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