SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनराजसूरि या राजसमुद्र १८३ पगि धूधरडी धम धमइ रे, ठमकि ठमकि धरइ पाऊँ रे, बाँह पकरि माता कहइ रे, गोदी खेलण आऊ रे। इनकी विविध स्फुट रचनाओं में विरह, प्रकृति, भक्ति, वैराग्य तथा उपदेश के अनेक रंगी चित्र मिलते हैं। इनमें कहीं-कहीं संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता तथा धर्म की महत्ता का चित्र है, तो कहीं संतकवियों जैसा वाह्यक्रियाकांडों का विरोध, और भक्त की दीनता तथा लघुता का भाववर्णित है। कवि ने शीलबत्तीसी और कर्मबत्तीसी में क्रमशः शील और कर्म की महत्ता पर प्रकाश डाला है। शील का वर्णन इन पंक्तियों में देखिये : शील रतन जतन करि राखउ, वरजउ विषय विकार जी, शीलवंत अविचल पदपामइ, विषई रुलइ संसार जी। जैन रामायण में रामायण की कथा संवादात्मक गेय शैली में मार्मिक ढंग से प्रस्तुत की गई है। इन रचनाओं से कहीं कहीं यह स्पष्ट लगता है कि ये कोरे धर्मोपदेशक ही नहीं, उच्चकोटि के कवि भी थे । इनकी भाषा में सादगी के साथ साहित्यिकता, अलंकारों का अकृत्रिम प्रयोग, कहावतों-मुहावरों का यथास्थान उपयोग और भावानुरूप छन्दयोजना ने इनकी भाषा की शक्तिमत्ता और भावव्यञ्जना की अभिवृद्धि में बड़ी सहायता पहुँचाई है। आपके काव्यगुण एवं व्यक्तित्व के प्रभावशाली पक्षों का उद्घाटन करने के लिए श्रीसार ने जिनराजसूरि रास सं० १६८१ में लिखा है, जिसका यथास्थान उल्लेख किया जायेगा । अपने उपरोक्त कथन की पुष्टि में मैं इनकी अपेक्षाकृत अल्पज्ञात रचना 'वैराग्य गीत' की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ सुणि वेहेनी प्रीउ डो परदेसी आज कइ कालि चलेसि रे, कहो कुण मोरी सार करेली, छिन छिन विरह दहेसी रे। विलद्धो अरु मदमातो काल न जाण्यो जातो रे, अचिंत प्रीयाणो आव्यो तातो रही न सके रंग रातो रे। सुण० बाट विषम कोइ संग न आवइ प्रिउ अकेलो जावे रे, विणु स्वारथ कहो कुण पहोचावे, आप कीया फल पावेइ रे । सुण.' १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३७५ (द्वितीय संस्करण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy