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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सासणनायक समरीयइ वर्द्धमान जिनचंद, अलिय विघन दूरइ हरइ आपइ परमाणंद । शालिभद्र सुख संपदा पामे दान पसाय, तासु चरित बषाणतां पातिक दूरि पुलाय ।
गजसुकुमार रास - क्षमा धर्म की महिमा पर लिखी गई कृति है । गजसुकुमार को पूर्वभव का ज्यों ही ज्ञान हो जाता है त्यों ही वह राजपाट छोड़कर दीक्षा ले लेता है । इसका आदि
नेमिसर जिनवर तणा चरणकमल प्रणमेवि, साधु साधु गुण गावतां सांनिधि करि श्रुतिदेवि । रचनाकाल - संवत सोल निनान वरसइ, वैशाखे 'शुभ दिवसे,
सुदि पांचमि सुभदिन सुभवारै, ओह रच्यो सुभवारहि । गुरु और क्षमा का माहात्म्य इन पंक्तियों में देखिये
श्री जिनसिंह सुगुरु सुपसाउले, पभणे श्री जिनराज, साधु तणां गुण करतां चीतव्यां, सीझे आतम काज ।
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कहइ केवली केवली, स्यूं न कहइ ओ सार, साधु धरम दस विध तिहां, क्षमा तणइ अधिकार ।
गुणस्थानबंध विज्ञप्ति १९ कड़ी की रचना सं० १६६५ में लिखी गई और पार्श्वनाथ गुणवेलि ४४ कड़ी की रचना सं० १६८९ में रची गई । गुणस्थान का समय " इय बाण रस ससि कला वच्छरि” लिखकर तथा पार्श्वगुणवेलि का काल “ शशिकला संवत सिद्धि निधि युत वरस वदि पोस मास" लिखकर बताया गया है । जिनराजसूरि कृत 'चौबीसी' और 'बीसी' में तीर्थंकरों की भक्ति से संबंधित गीत हैं । ऋषभजिनस्तवन में कवि ने प्रभु चरणकमल तथा मन मधुकर का सुन्दर रूपक बाँधा है, यथा
मन मधुकर मोही रह्यउ, रिषभचरण अरविंद रे, उनडायउ उडइ नहीं, लीणउ गुण मकरंद रे । ऋषभ का बालवर्णन - रोम रोम तनु हुलसइ रे, मूरति पर बलि जाऊ रे ।
कबही मो पह आइयउ रे हूँ भी मात कहाऊ रे । '
१. डॉ० हरी प्रसाद गजानन शुक्ल हरीश – गुर्जर जैन कवियो की हिन्दी
कविता को देन पृ० ११४
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