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जिनराज सूरि या राजसमुद्र
१८१ प्रकाशित; शालिभद्र मुनि चतुष्पदिका (रास अथवा चरित्र) अथवा शालिभद्र धन्ना चौपाई सं० १६७८ आसो वदी ६ प्रकाशित, बीस विहरमान जिनगीत (वीशी) सं० १६८५ से पूर्व, प्रकाशित; चतुर्विशति जिन गीत स्तवन (चौबीसी) सं० १६९४ से पूर्व, पार्श्वनाथ गुणवेलि ४४ कड़ी सं० १६८९ पोष वदी ८ बुधवार, गयसुकुमाल रास ३० ढाल ५०० कड़ी सं० १६९९ वैशाख सुदी ५, अहमदाबाद, प्रकाशित; स्तवनावलि, गोड़ी लघु स्तवन ७ कड़ी आदि। __शालिभद्ररास -इनकी उल्लेखनीय साहित्यिक कृति है। यह आनन्द काव्य महोदधि मौक्तिक भाग १ में प्रकाशित है। इसमें राजा श्रेणिक के समकालीन शालिभद्र और धन्ना सेठ के वैभव तथा वैराग्य की कथा है। कथा द्वारा सुपात्र दान की महिमा समझाई गई है। यह कथा पर्याप्त प्रचलित है। श्री देसाई ने इस रास को पहले मतिसार की रचना बताया था क्योंकि इसमें मतिसार शब्द इस प्रकार आया
श्री जिनसिंह सूरि सीस मतिसारे भवियणनि उपगारे जी,
श्री जिनराज वचन अनुसारइ चरित कह्यो सुविचारे जी । यह मतिसार शब्द व्यक्ति वाचक संज्ञा न होकर विशेषण भी हो सकता है किन्तु 'जिनराज वचन अनुसारइ' से शंका होती है और स्पष्टीकरण की अपेक्षा है। जैन गुर्जर कविओ के नवीन संस्करण में संपादक ने इसे जिनराजसूरि की रचना ही माना है और इस मान्यता का आधार प्रतियों की पुष्पिकाओं को बताया है।
देसाई ने भी जैन गुर्जर कविओ भाग ३ में इसे जिनराजसूरि की रचना मान लिया था। श्री अगरचन्द नाहटा भी इसे जिनराजसूरि की श्रेष्ठ कृति मानते हैं अतः इसे उन्हीं की रचनाओं में यहाँ शीर्ष स्थान दिया गया है। रचनाकाल इस प्रकार कहा गया हैसाधु चरित कहिबा मन तरस्ये, तिण अ उद्यम भाष्यो हरषे जी, सोलह सत अठहत्तर वरस्ये आस वदि छठि दिवस्ये जी। इसके प्रारम्भ में दान के माहात्म्य का उल्लेख किया गया है, यथा१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०३ (द्वितीय संस्करण) २. वही भाग १ पृ. ५०१ ३. वही भाग ३ पृ० ९५८ और ३ खण्ड २ पृ० १५१९
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