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१८.
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मालीरासा में २६ पद्य हैं। यह एक रूपक काव्य है। जीव माली है, भव एक वृक्ष है जिसका फल जहर के समान है; उनसे बचना चाहिये, यथा
माली वरज्यो हो ना रहै, फल चाषण की भूख, । बाधि सुगाडी गडगडी, कदी चढ्यौ भवरुषि; हो प्राणी। सुरडालि चढ़ी मालिया, हंसि हंसि ते फल षाय, अंति सू रोवै रे मंद रो, जब माला कूमलाइ, हो प्राणी।
पद--इन्होंने भक्तिभावपूर्ण अनेक गेय पद भी लिखे हैं; कुछ पंक्तियां एक पद की प्रस्तुत है--
आनन्दरूपी आनन्द करता विरद यही अति भारा, सुख समूह का दाता भाई महामंत्र नवकारा हो। ऐसे प्रभु को नाम भविक जन पलक न जात विसारा हो,
जिनदास नाम बलिहारी करिहो मोहि निस्तारा हो।' इनके पद और दोहे भक्त कवियों की रचनाओं से पर्याप्त मेल खाते हैं जैसे निम्नांकित दोहा कबीर के दोहे के कितना करीब है
चेतन पड्यो अचेतन के फ्रदि जित बँचे तिह जाई । मोह फंद गले लगे रे भाई, में में में विललाई। इन रचनाओं के आधार पर ये एक श्रेष्ठ संत कवि सिद्ध होते हैं।
जिनराजसूरि या राजसमुद्र--ये खरतरगच्छीय अकबर प्रतिबोधक, युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्र सूरि के पट्टधर जिनसिंह सूरि के शिष्य तथा पट्टधर थे। इनका जन्म वि० सं० १६४७ में धर्मसिंह की पत्नी धारल देवी की कुक्षि से हुआ था। सं० १६५६ में दीक्षित हुए और दीक्षानाम राजसमुद्र पड़ा। इन्हें सं० १६७४ में आचार्य पद प्राप्त हुआ। ये तर्क, व्याकरण छन्द-अलंकार शास्त्र और कोश आदि के विद्वान् तथा मरुगुर्जर के समर्थ कवि थे। इन्होंने श्री हर्ष के नैषधीय महाकाव्य पर जिनराजि नामक संस्कृत टीका लिखी है। आपकी 'स्थानांगवत्ति' का भी उल्लेख मिलता है। इनकी कुशाग्र बुद्धि एवं अध्ययन रुचि के सम्बन्ध में 'श्रीसार' ने लिखा है "तेह कला कोई नहीं, शास्त्र नहीं बलि तेह, विद्या ते दीसइ नहीं, कुमर नइ नावइ तेह।" मरुगुर्जर में आपकी ये रचनायें उपलब्ध हैं.-१४ गुण स्थान बंध विज्ञप्ति (पार्श्वनाथ स्तवन) १९ कड़ी सं० १६६५ मागसर वदी ८, १. डा० प्रेमसागर जैन- जैन भक्ति काव्य पृ० १२९
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