________________
जिनचंद्रसूरि
१७७ रास की इन पंक्तियों से भी यही आभास होता है कि रचना उनके किसी भक्त शिष्य की हैरचनाकाल-संवत सोलहसय तेतीसइ, फागुण वदि पंचमि उल्लासइ,
खरतरगछि गरुयइ गुणराजइ, श्री जिणचंद सूरि गुरुपासि । जिनधर्ममंजरी की रचना सं० १६६२ बीकानेर में हुई, यह भी उनके किसी अन्य शिष्य की ही रचना प्रतीत होती है। इसमें जिनचंद्र सूरि और अकबर से भेंट की चर्चा की गई है, यथा
विध करीम अकबर साहिवर, प्रतिबोधकारक सुहगुरु,
आदेश लहि करी धरम धरता सेय मंगल सुखकरु ।' इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
भुज रस विजादेवी वच्छरइ, मधु सुदि दसमी पुष्यारक वरु,
इम वरइ विक्रमनयर मंडण, रिषभदेव जिणेसरु । लगता है कि बाद में जिन शिष्यों ने गुरुमुख से वाणी सुनकर लिपिबद्ध किया, वे उनकी छाप से पूर्व इतने आदरार्थक शब्द स्वयं जोड़ देते थे कि उनके कृतित्व में संदेह होने लगा है, परन्तु वस्तुतः वे बड़े प्रतिभाशाली एवं सुपठित आचार्य थे। उन्होंने कोई रचना ही न की हो इस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में अभी और अनुसन्धान अपेक्षित है ।
जिनचंदसूरि (ii)-आप खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा के आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। श्री देसाई ने इन्हें गुणप्रभसूरि का शिष्य लिखा है जिसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है। आप लूणिया गोत्रीय जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे। ये बेगड़ शाखा के आठवें पट्टधर थे। इन्होंने 'राजसिंह चौपइ सं० १६८७, उत्तमकुमार चौपइ सं० १६९८ जैसलमेर, द्रौपदी चौपइ १६९७ जैसलमेर, राजप्रसेनीसूत्र चौपइ सं० १७०९ सक्कीनगर और पार्श्वस्तवन, लोदवा गीत आदि अनेक रचनायें की। सं० १७१३ में इनका स्वर्गवास हुआ। आप इस काल के प्रसिद्ध रचनाकार थे। द्रौपदी चौपइ जो युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की रचना समझी जाती थी इन्हीं की कृति है। यह तथ्य रचना की पंक्तियों से भी प्रमाणित होता है१. जैन गुर्जर कविओ भाग १५० ३९६-९७ (प्रथम संस्करण) २. वही भाग ३ पृ० १०८९ (प्रथम संस्करण)
१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org