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जल्ह - जिनचंद्रसरि रचनाकाल-संवत केरुं मान सुणइ तु, रस सागर षट इंदुसार तु;
नागोर नयर मांहि स्तव्या साहिव श्रावण मास उदार तु । इसके बाद आनंदविमल से लेकर हर्षसोम तक गुरुपरंपरा दी गई है । उसके बाद लिखा है
चरणकमल सेवा करू साहिव जससोम प्रणमइ सीस तु;
भाव धरी हर्षइं स्तव्या साहिब जिनवर अह चउवीस तु ।' कवि ने रचना की गाथा का मान बताते हुए लिखा है
गाथा केरुं मान कहुं साहिब कुंडली वेद चंद्र मान तु
अंकतणी गति करी साहिब जाणइ जांण सुजाण तु । अन्तिम 'कलश' की दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
तपगछ मंडण कुमतिखंडण श्री विजयसेन सुरिंदवरा, हर्षसोम पंडित चरणसेवक जससोम मंगलकरा । दोनों ही तीर्थङ्करों की स्तुतियाँ हैं और भक्तिभाव का प्राधान्य है। इन दोनों की प्रतिलिपि फलौधी नगर में मुनि रविसोम ने सं० १६९५ में लिखा था, जो उपलब्ध है।
युगप्रधान जिनचंद्रसूरि-( सं० १५९५ से सं० १६७० ) आप खरतरगच्छ के षष्ट जिनचंद्रसूरि और चतुर्थ दादा गुरु गिने जाते हैं। आप सम्राट अकबर द्वारा सम्मानित और युगप्रधान पद से विभूषित १७वीं शताब्दी के शासन प्रभावक आचार्य थे। इस युग में तपागच्छ के हीरविजयसूरि और खरतरगच्छ के जिनचन्द्रसूरि अग्रगण्य आचार्य थे । अकबर ने जब सूरि जी का यश सुना तो मंत्री कर्मचन्द्र से बुलावा भेजा। सूरिजी लाहौर में बादशाह से मिले और उसे अपने संयम, त्याग, विद्वत्ता और चारित्र से प्रभावित किया । उस समय उनके साथ जयसोम, रत्ननिधान, गणविनय और समयसुन्दर आदि अनेक प्रसिद्ध विद्वान् थे। उसी समय समयसुन्दर ने 'राजा नो ददाति सौख्यम्' शीर्षक उक्ति पर अष्टलक्षी काव्य की रचना करके सबको चकितकर दिया था। सम्राट बड़ा प्रभावित हुआ। उसने सूरिजी को युगप्रधानपद और उनके शिष्य जिनसिंह को आचार्य पद प्रदान किया। उसी समय समयसुन्दर आदि कई विद्वानों को उपाध्याय पद से सम्मानित १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ९७७-९७८ (प्रथम संस्करण) तथा
भाग ३ पृ० १९८-१९९ (द्वितीय संस्करण)
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