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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आचार्य थे । इन्होंने रास, चौपाई, स्तवन, गीत आदि भिन्न-भिन्न काव्य विधाओं में पर्याप्त साहित्य लिखा है ।
जल्ह - आप खरतरगच्छीय श्री साधुकीर्ति के शिष्य थे । ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में इनकी एक रचना साधुकीर्ति जयपताका गीतम् नाम से संकलित है । साधुकीर्ति ने सं० १६२५ में एक वाद'विवाद में तपागच्छीय बुद्धिसागर को पराजित किया था। जयपताका गीतम् में उसी घटना का वर्णन है । साधुकीर्ति की इस कीर्ति का वर्णन उनके अन्य कई शिष्यों ने भी किया है जिनमें से कनकसोम कृत जइतपद वेलि में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है । प्रस्तुत गीत से पता चलता है कि साधुकीर्ति ओसवाल वंशीय शाह वस्तिग की पत्नी खेमल दे के पुत्र थे । आप दयाकलश के शिष्य अमरमाणिक्य के शिष्य थे । सं० १६२५ में आपने आगरे में अकबर की सभा में तपागच्छीय वादियों को निरुत्तर करके शाह एवं उपस्थित विद्वानों की प्रशंसा अर्जित की थी । सं० १६४६ में जालौर में आप स्वर्गवासी हुए थे । इस रचना की कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत है -:
सोलहसइ पंचवीसइ आगरइ नयरि विशेष रे,
पोसह की चरचा थकी, खरतर सुजस नी रेख रे । '
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'वचन पातिसाह ए बोलियउ बुद्धिसागर अजाण रे,' इस पंक्ति से लगता है कि बुद्धिसागर उस वाद में परास्त हो गये थे । यह गीत ८ कड़ी का है । इसकी अन्तिम कड़ी इस प्रकार है
श्री जिनचंद सूरि सानिधइ, दयाकलश गुरु सीस रे, साधुकीर्ति जगि जयत छइ, कहइ कवि जल्ह जगीस रे ।
जशसोम - आप तपागच्छीय आनंदविमल > सोमविमल > हर्षसोम के शिष्य थे । आपकी दो रचनाओं का उल्लेख मिलता है । चौबीसी . और सांचोरमंडन शीतलनाथ स्तवन । दूसरी मात्र छह कड़ी की लघु रचना है, जिसमें शीतलनाथ की स्तुति है । इनकी 'चौबीसी' का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
सकल पदारथ पूरवइ श्री संखेसर पास, चउवीसइ जिनवर स्तवउ मुझ मनि पुरु आस ।
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'जयपताका गीतम्'
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