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जयसागर
तस पद कमल दिवाकर मल्लिभूषण गुणसागर, आगार विद्या विनय तणो भलो ए पद्मावती साधी एणे, ग्यासदीन रंज्यो तेणें । जग जेणें जिनशासन सोहावियोए ।
चुनड़ी गीत - एक रूपक है जिसमें नेमिनाथ के वन चले जाने पर राजूल ने चारित्ररूपी चुनड़ी को जिस प्रकार धारण किया, उसका वर्णन है । वह चुनड़ी नवरंगी थी। गुणों का रंग, जिनवाणी का रस, तप का तेज मिलाकर वह चूनड़ी रंगी गई । इसी चूनड़ी को ओढ़कर वह स्वर्ग गई । इसका प्रथम छंद
नेमि जिनवर नमीया, जी चारित्र चुनड़ी मागे राजी। गिरिनार विभूषण नेम, गोरी गजगति कहे जिनदेव । राजिमंति राजिव नयणी, कहे नेम प्रति पिकवयणी।
घमघमंति है धूधरी चंगी, आपो चारित्र चूनड़ी नवरंगी।' इसमें कुल १६ कड़ी है । अंतिम कड़ियाँ इस प्रकार हैं :
चित चुनड़ी ए जे धर से मनवंछित नेम सुख कर से, संसार सागर ते तरसे, पुण्यरत्न नो भंडार भरसे । सुरि रत्नकीर्तिजसकारी, शुभ धर्मराशि गुणधारी,
नरनारि चुनड़ी गावें ब्रह्मजयसागर कहें भावें। रत्नकीर्ति गीत - जयसागर रत्नकीर्ति के शिष्य ही नहीं उनके कट्टर समर्थक एवं प्रचारक थे। उन्होंने गरु रत्नकीर्ति के जीवन पर आधारित कई गीत लिख कर उसका जनता में प्रचार किया। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखियेमलय देश भव चंदन, देवदास केरो नंदन,
श्री रत्नकीर्ति पद पूजिये। अक्षय शोभन साल ए, सहेजल दे सुत गुणमाल रे विशाल
श्रीरत्नकीर्ति पद पूजिए । श्री जयसागर ने जीवनपर्यन्त साहित्य के विकास में अपना योगदान दिया, साथ ही वे श्रेष्ठ साधु और जैनाचार्य थे। इनका संक्षिप्त परिचय डा० हरीश शुक्ल ने भी अपने ग्रन्थ में दिया है।
१. डा० कस्तूर चन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत पृ० २७६-२७७
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