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जयवंतरि
नवयौवनि यौवनि तरुणीवेश, पापी विरह सतावइ तापइ पिउ परदेश, तरुवर बेलि आलिंगन देषिय सील सलाय, भरयौवन प्रिय बेजलुषिण न विसारियो जाइ । सं करुं सरोवर जल विना हंसा किस्यू रे करेसि, जसघरि कमनीय गोरडी तस किम गमइरे विदेश ।
प्रिय की याद में नींद नहीं आती, प्रिय स्वप्न में आकर जगा जाता है
कठिन कंत करि आलि जगावइ घड़ी घड़ी मुझ सुहणाइ आवइ, जब जोऊ तब जाइ नासी, पापीडां मुझ धालिम फांसी ।
वह प्रिय से मिलने के लिए पक्षी बनकर उड़ जाने की कल्पना करती है
हुँ सिइं न सरजी पंषिणी जिम भमती पिउ पासि,
हुँ सिइं न सरजी चंदन करती प्रिय तनु वास । इस प्रकार वह विरह से सूख कर अस्थिपंजर मात्र रह गयी है
झूरि झुरि पंजर थइ साजन ताहरइ काजि, नीद न समरु वीझडी न करइ मोरी सारि ।'
इस प्रकार यह एक मार्मिक, सरस विरह काव्य है। नेमराजुल बारमास बेल प्रबन्ध भी इसी तरह की भावपूर्ण रचना है किन्तु उद्धरणों से कलेवर बढ़ाने का अवसर नहीं है। इनकी अन्य प्रकाशित रचना-- ऋषिदत्ता रास अथवा आख्यान ५६२ कड़ी की विस्तृत रचना है। यह सं० १६४३ मागसर शुदी १४ रविवार को लिखी गई। जिसका संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
लोचनकाजल संवाद १८ कड़ी की सुन्दर सरस गीत है। आदि - नयणां रे गुणरयणां नयणां अ अणधटती जोडि,
काला कज्जल केरइ कारणि, तुझनइं मोटी खोडिरे। असरिस सरसी संगति करतां, आवइ चतुरह लाज, जेहथि सुरजन मांहि हुइ हासु, तसमि भणइस्यु काजरे । ऐसा समझा जाता है कि इन्होंने काव्यप्रकाश की टीका भी लिखी थी। प्रशस्ति में ऐसा वर्णित है, यथा१. प्राचीन फागु संग्रह पृ० १२७-१२८
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