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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ससि रस सुरपति वच्छर आतप अकादिसि बुधवारइ, समेताचल महातीरथ केरुं स्तवन रच्यु मतिसारइ । पढ़इ गुणइ जे श्रवणे निसुणइ तीरथ महिमा भावइ,
जयविजय विवुध इम जंपइ सुख अनंता सौ पावइ । इसे चिमनलाल डाह्याभाई दलाल ने बड़ोदरा से भी प्रकाशित किया है। इन्होंने इन रचनाओं के अलावा संस्कृत में 'शोभनस्तुति' पर टीका सं० १६४१ में लिखी और कल्पदीपिका की भी रचना की जिसका उल्लेख ऋषभदास ने हीरविजयसूरि रास में किया है
'जसविजय ज विजय पंन्यास, कल्पदीपिका कीधी खास ।'
हीरविजयसूरि अकबर से मिलने गये थे तब ये जयविजय भी उनके साथ थे। अतः तत्कालीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी कवि-साहित्यकार थे। __ जयवंतसूरि--इनका अपर नाम गुणसौभाग्य भी है। ये बड़तपगच्छ के उपाध्याय विनयमंडल के शिष्य थे। बड़तपगच्छ की स्थापना विजयचन्दसूरि ने की थी। वे खंभात की बड़ी पोशाल में रहते थे इसलिए इसे वृद्ध पौशालिक गच्छ या संक्षेप में बड़तपगच्छ कहा जाने लगा। यह घटना १४वीं शताब्दी के प्रथम चरण की है। जयवंतसूरि ने सं० १६१४ में 'शृङ्गारमंजरी' या 'शीलवती चरित्र' की रचना की जिसमें शीलवती का चरित्र चित्रित है। इसका आदि
चन्द्रवदनि चम्पकवनी चालंति गजगत्ति, मयणराय मन्दिर जिसी, पय पणमूं सरसत्ति । इसमें दूहा और चौपाई का प्रयोग हुआ है । एक चौपाई देखिये-- सहि गुरु चरण नमू निसिदीस, जेहथी पुहपिइ सकल जगीस, जेहथी लहीइ धर्मविचार, सकल शास्त्र सद्गुरु आधार ।
ते सहिगुरुना प्रणमी पाय, जयवंत पंडित अकचित्त थाय, ग्रन्थ करुं शृङ्गारमंजरी, बोलू शीलवती नुं चरी।
इसके अन्त में वृद्धतपागच्छ की गुरुपरम्परा दी गई है । रचनाकाल इस प्रकार बताया है-- १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ६६७ (प्रथम संस्करण)
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