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जयविजय
अन्त--सकल कल्याणनिवास गेह, अनि सुन्दर सोहइ । सिरि कल्याणविजय वाचक प्रति, दीठइ मन मोहइ । तास सीस जयविजय भणई ओ पुरु मनह जगीस, सिरि विजयसेन सूरीसरु प्रतिपउ कोडि वरीस 1
इस रचना में हीरविजयसूरि के विशेष पुण्य कार्यों का सादर उल्लेख किया गया है । यह ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय की क्रमसंख्या २२ पर प्रकाशित है । इससे पूर्व हीरविजय सलोको और हीरविजयसूरि निर्वाणरास नामक हीरविजयसूरि से सम्बन्धित रचनायें भी उक्त संग्रह में संकलित हैं । उक्त तीनों रचनाओं से हीरविजयसूरि और उनके समय की प्रमुख घटनाओं पर पूरा प्रकाश पड़ता है। हीर जी की तपश्चर्या, सत्यभाषण, उपवास, योगाभ्यास आदि सद्वृत्तियों का वर्णन किया गया है । उनकी शिष्य संख्या, ग्रन्थ रचना, विम्ब प्रतिमास्थापन, संघयात्रा, तीर्थाटन का भी व्यौरा मिलता है । इस दृष्टि से इस रचना का ऐतिहासिक महत्व है ।
कल्याणगणि नो रास में लेखक ने गुरु कल्याणविजय गणि का गुणानुवाद किया है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है-सकल सिद्धिवरदायको सजयो रिषभ जिणंद, भारत सम्भव भविअ जण, बोहण कमल दिणंद । शांति जिणेसर मनि धरुं शिवकर त्रिजग मझारि सिद्धि बधू वरवा भणी, वरीओ संजमभार । '
अन्त में अकबरर - हीरविजय मिलन की चर्चा भी की है यथाश्री हीरविजय सूरी राजीओ, कलियुग जुगह प्रधान रे, साहि अकबर राजणि बुझवी, दीधु जीव अभयदान रे । रचनाकाल - संवत सोल पंचावन, वत्सर आसो मास रे ।
शुद्ध पख्य पंचमि दिने, रचीओ अनोपम रास रे ।
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सम्मेत शिखर रास या पूर्वदेश चैत्य परिपाटी - इसमें विजयदेव सूरि के समय मथुरा के संघवी द्वारा निकाली गई संघयात्रा का वर्णन है । यह संघयात्रा मथुरा से चलकर पाटलीपुत्र, राजगृही आदि होती हुई जौनपुर के रास्ते अयोध्या होती पुनः मथुरा जाकर सम्पन्न हुई थी । रचनाकाल इस प्रकार बताया है
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २९० (द्वितीय संस्करण);
भाग १ पृ० ३२० (प्रथम संस्करण )
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