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जयमल्ल जयराज
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यह रचना 'साधुकीर्ति जयपताका गीतम्' शीर्षक के अन्तर्गत छपी छह रचनाओं में अन्तिम है । इसका ऐतिहासिक महत्व है ।
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जयमल्ल -- चन्द्रगच्छीय शक्तिरंग के आप शिष्य थे । आपने सं० १६५२ में 'सम्यकत्व कौमुदी चौपाई' की रचना की । रचना की प्रतिलिपि सोनपाल द्वारा लिखित सं० १६५७ की उपलब्ध है । इसका उद्धरण और अन्य विवरण प्राप्त नहीं हो सका है ।
(ब्रह्म) जयराज - - आप भट्टारक सुमतिकीर्ति के प्रशिष्य एवं भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य थे। सं० १६३२ में गुणकीर्ति डूंगरपुर में भट्टारकीय गादी पर बैठे थे । उनके शिष्य ब्रह्म जयराज ने इस घटना का वर्णन अपनी रचना 'गुरु छन्द' में किया है । उस समय का वर्णन इन पंक्तियों में देखिये
संवत सोल बत्रीसमि वैशाख कृष्ण सुपक्ष,
दसमी सुरगुरु जाणिय, लगन लक्ष शुभ दक्ष । सिंहासन रूपा तणी विसर्या गुरु सन्त, श्री सुमतिकीर्ति सूरि रंग भरी, ढाल्या कुंभ महंत । * गुणकीर्ति का गुणगान करता हुआ कवि कहता है
श्री गुणकीर्ति यतीन्द्र चरण सेवि नरनारी, श्री गुणकीर्ति यतीन्द्र पाप तापादिक हारी । श्री गुणकीर्ति यतीन्द्र ज्ञानदानादिक दायक, श्री गुणकीर्ति यतीन्द्र चार संघाष्टक नायक । गुरुछन्द की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है
सकल यतीश्वर मंडणी, श्री सुमतिकीर्ति पट्टोधरण, जयराज ब्रह्म एवं वदति, श्री सकलसंघ मंगलकरण |
उस समय भट्टारक सुमतिकीर्ति का आसपास के प्रदेशों में अच्छा सम्मान था, अतः देश के सभी प्रान्तों से श्रावकगण अच्छी संख्या में उस पट्टाभिषेक में सम्मिलित होने के लिए एकत्र हुए थे । उसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन इस रचना में किया गया है । रचना से कवि की गुरुभक्ति और ओजस्वी अभिव्यन्जना शक्ति का अच्छा परिचय मिलता है । भाषा प्रवाहयुक्त हिन्दी है ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २७८ (द्वितीय संस्करण)
२. कस्तूरचन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन सन्त पृ० १९०-१९१
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