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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास खरतरगच्छि जिनचंद सूरिंद, उदयो अभिनव सुरतरु कंद, तासु पसाई जसोधर चरी, सोल्ह सइ तिगयाले करी।'
धर्मदत्त चौपइ अथवा रास (गा० ३२० सम्वत् १६५८) के अलावा जैसा पहले कहा गया है, आपने २४ जिन आतरां स्तवन, सम्मेत शिखरस्तवन सम्वत् १६५० आदि कई स्तवन और भजन भी लिखे हैं। इन रचनाओं में सुरप्रिय चरित रास महत्वपूर्ण रचना है। यह सं० १६६५ आसो वदी ३ शुक्रवार को मुलतान में लिखी गई थी। इसमें बताया गया है कि जो व्यक्ति जाने-अनजाने हो गई अपनी भूल. चुक पर पश्चात्ताप कर लेता है वह सुरप्रिय की तरह कलिमल से मुक्त होकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसकी भाषा भाववहन करने में समर्थ मरुगुर्जर है। इस कथन की पुष्टि के लिए दो चार पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैं -..
पापकरम केइ जाणता, अणजाणत तिम केइ, करिनइ पछतावइ वली, भावई धरम करेइ । सुरप्रियनी परि ते सही, सुखि हुई नरनारि,
कलिमल सवि दूरइं करी, पामई भवनउ पार । २ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में इनका एक गीत 'साधुकीर्ति गुरु स्वर्गेगमन गीतम्' नाम से छपा है । यह १० कड़ी की रचना है। इससे पता चलता है कि साधुकीति सं० १६४६ में जालौर में थे। अपनी मृत्यु समीप समझकर उन्होंने अनशनपूर्वक शरीर त्याग किया। इसमें उसी समय का वर्णन किया गया है। इसकी पहली कड़ी इस प्रकार है
सुखकरण श्री शान्ति जिणेसरु, समरी प्रवचन वचनस जी, सोहण सुहगुरु गाईए, नि .. .. .. नमाए जी । १।
प्रति के खंडित होने के कारण द्वितीय पंक्ति पूर्ण नहीं छपी है। इसकी अन्तिम १०वीं कड़ी निम्नांकित है
ऊलट आणी सुहगुरु गाइया, वाचक रायचंद्र सीस जी, आसापूर सुरमणि सुणवी, जयनिधान सुह दीसि रे । ३
१. जैन गुर्जर कबिओ भाग २ पृ० १६४ (द्वितीय संस्करण) २. जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १६४-१६५ (द्वितीय संस्करण) ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'साधुकीति जयपाताका गीतम' संख्या ६
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