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जयचंद
न्यान गुणनिधि सुगुरु विख्यात,
श्री रायचंद सूरीसरु सकलसार गुण देह भूषित । तासु तणा गुण वर्णव्या पासनाह सुप्रसादि सोभित । '
आपकी दूसरी रचना रायचन्द सूरि गुरु वारमास श्री रायचन्द सूरि पर ही आधारित है । यह भी 'ऐतिहासिक रास संग्रह' में प्रकाशित है । प्रारम्भिक पंक्तियों में रायचंद के माता पिता और इनकी दीक्षा आदि का वर्णन है । इसके बाद आषाढ़ से प्रारम्भ करके एक एक ढाल ओर दोहा कहा गया है । जैसे वर्षा का प्रारम्भ होने पर उनकी बहिन संपूरा समझाकर कहती है
परदेस पंथी गेह आवइ तुम्हें विलसउ सुख्य अगाह रे
सम्पूरा भाई इम वीनवइ रे, ओ अम्ह वचन प्रतिपालिरे बंधव जी । बहिन द्वारा गाया गया यह बारहमासा विचित्र लगता है । २८ ढाल में चैत्र का वर्णन करती हुई वह कहती है-
चैत्र इति नाग पुन्नाग चंपक सहकार कलिकावर्त, कामी ति रामास्यउं गाई बनकेलि रस पूरंति । धनसार लाल गुलाल सुन्दर मृगनाभि वास सुहंति, इम विषय सुखरस भोगवउ पूरउमननी खंति रे बंधव जी । २
बहिन के द्वारा भाई से इस प्रकार के उद्दीपनों का वर्णन अस्वाभाविक लगता है । यह रचना 'प्राचीन मध्यकालीन बारमासा संग्रह भाग १ में भी प्रकाशित है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ हैआदि - सुन्दर रूप सुजाणवर सोहग मंगलकार,
मनमोहन जिओ वल्लहओ परतषि सुर अवतार । अंत - श्री रायचंद सूरीसर जे सम्पइ नरनारि,
गणि जयचंद इम उच्चरइ तसु हुइ जय जयकारि ।
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लगता है कि इस रचना के समय तक जयचन्द सूरि नहीं बल्कि केवल गणि ही थे अर्थात् यह रचना सं० १६७४ के पूर्व ही हुई होगी ।
आपकी तीसरी कृति पार्श्वचन्द्र सूरिना ४७ दोहा पार्श्वचन्द्र की स्तुति में लिखी लघु कृति है । इसके अन्तिम दो छन्द नमूने के रूप में
१. ऐतिहासिक रास संग्रह पृ० २९-३० २. ऐतिहासिक जैन रास संग्रह पृ० ७९
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