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________________ वाचक जयकीर्ति १५५ आप की लाहौरगजल से पता चलता है कि वहाँ अच्छी जैन लस्ती उस समय रही होगी और फिरंगियों ने अड्डा जमा लिया था। खड़ी हिन्दी भाषा का प्रयोग लाहौर में अवश्य उस समय प्रचलित था और उसमें मुसलमानों के ससर्ग के कारण अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग होने लगा था। यही समय उर्दू भाषा शैली के विकास का भी है। इन प्रमुख रचनाओं के अलावा आपकी २८ स्फट रचनायें भी उपलब्ध हैं जिनमें ४ दोहा ३ छप्पय और २१ सवैया है।' इस प्रकार ये १७ वीं शताब्दी के श्रावक कवियों में श्रेष्ठ स्थान के अधिकारी प्रतीत होते हैं। वाचक जयकीति -खरतरगच्छीय समयसुन्दर के प्रशिष्य एवं वादी हर्षनन्दन के आप शिष्य थे। आपने जिनराज सूरि चौपइ, सीताशील पताका गुणवेलि, अकलंक यतिरास, अमरदत्त मित्रानन्द रास, रविब्रत कथा, वसुदेव प्रबन्ध और शील सुन्दरी प्रबन्ध आदि अनेक रचनायें की है। आपने गद्य में कृष्ण रुक्मिणी री बेलि पर बालावबोध सं० १६८६ बीकानेर में लिखा । षडावश्यकबालावबोध की रचना सं० १६९३ में की ।२ आपका एक गीत 'जिनराजसूरि गीतम्' शीर्षक के अन्तर्गत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है। यह सं० १६८१ में लिखा गया। इस गीत से लगता है कि इसी समय जिनराज सूरि और जिनसागर सूरि में मनोमालिन्य बढ़ा तथा दो परम्परायें चलीं। एक जिनराज सूरि की भट्टारकीय परम्परा और दूसरी जिनसागर सूरि की आचारजीया शाखा कही गई। गीत की दो पंक्तियाँ देखिये तूं सीलवंत निर्लोभ हो, श्री जिनसागर सूरि सुगुरु तणी हो, जयकीरति करइ सुशोभ हो, अविचल मेरुतणी परिप्रतपज्यो हो। श्रीसार ने भी सं० १६८१ में ही जिनराजसूरिरास लिखा था । इसी वर्ष धर्मकीर्ति ने भी रास लिखा। इनसे इस महत्वपूर्ण घटना पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०१०-१४ (प्रथम संस्करण) २. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ७९ ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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