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आचार्य चन्द्रकीति
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श्री भरुयचनगरे सोहामणु श्री शांतिनाथ जिनराय रे, प्रासादे रचना रची, श्री चन्द्रकीरति गुण गाय रे ।'
यह रचना भड़ौच नगर स्थित शांतिनाथ प्रासाद में रची गई। 'जयकुमार आख्यान' इनका सबसे बड़ा काव्य है जो ४ सर्गों में विभक्त है। जयकुमार प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव के पुत्र सम्राट् भरत के सेनाध्यक्ष थे। इसमें उन्हीं का आख्यान वर्णित है। रचना वीररस प्रधान है। यह रचना सं० १६५५ चैत्र शुक्ल दशमी को वारडोली में की गई थी। इसमें काव्यतत्व भी उत्तम है। स्वयम्बर में वरमाला लेकर उपस्थित सुलोचना का चित्रण करता हुआ कवि कहता है___ कमलपत्र विशाल नेत्रा, नासिका सुक चंच ।
अष्टमी चन्द्रज भाल सोहे, वेणि नाग प्रपंच । सुलोचना के स्वयम्बर स्थल पर आने के बाद उपस्थित राजकुमारों की दशा का चित्रण करता हुआ कवि लिखता है
एक हँसता एक खीझे एक रंग करे नवा,
एक जांणे मुझ वरसे प्रेम धरता जुजवा । सुलोचना द्वारा वरमाला अर्ककीति के गले में डाल दी जाने पर जयकुमार भड़क कर युद्ध छेड़ देता है। उस अवसर पर वीररस का अच्छा परिपाक हुआ है, यथा
धरी धीर धरणी ढोली नाखंता, कोपि कड़कड़ी लाजन राखता। हस्ती हस्ती संघाते आथंडे, रथो रथ सुभट सह इम भिडे। हय हयारव जब छाज्यो, नीसांण नादे जग गज्जयो।२ इसमें रचनाकाल इस प्रकार कहा गया हैसंवत सोल पंचानवे रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे, बारडोली नयरे रचना रची रे, चन्द्रप्रभ शुभ आवास रे,
कवि का समय सं० १६०० के आसपास से सं० १६६० तक निश्चित किया गया है। इनके पद भी सरस हैं अतः एकाध उनका उदाहरण भी प्रस्तुत है
जागता जिनवर जे दिन निरख्यो,
धन्य ते दिवस चिन्तामणि सरिखो। १. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत पृ० १५६ २. वही पृ० १५९
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