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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत सोल इकहत्तरइ जाणि, पातिगाम सुठाम वखाणि । श्रावण सुदि बीजइ गुरुवारि, गायत्रं वंकचूल सुखकार ।
इसमें विस्तृत रूप से गुरु परम्परा का विवरण है जिसके अन्तर्गत जिनचन्द्रसूरि, जिनसिंह सूरि, कीर्तिरत्न, हर्षधर्म, हर्षविशाल, साधु, मंदिर, विमलरंग और लब्धिकल्लोल का सादर स्मरण किया गया है। इसकी अन्तिम चार पंक्तियाँ भाषा एवं रचना शैली के नमूने के. रूप में प्रस्तुत की जा रही हैं -
तासु प्रसादइ अह रसाल, वंकचूल गायउं गुण माल । सुणंता भणंता लीलविलास, अह सम्बन्ध काउ गंगदास । जिहां सागरजल गंग तरंग, जिहां कंचनगिरि वर उतंग ।
तिहां लगि नंदउ अह सम्बन्ध, सुणता टालइ करमह बंध ।' . इसका प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है
संति जिणेसर चिर जयतु, संतिकरण जिनराज, बंकचूल राजा तणउ चरित कहिसु हित काज ।
आपमें कवि कर्म की क्षमता दिखाई पड़ती है, उदाहरणार्थ निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं
गुरु विण को जाणइ नहीं, धरमाधरम विचार, सुघट घाट सोनार विण, लाष मिलइ लोहार । मूरिष किमइ न रंजियइ, जउ विधि रंजनहार, ठंठन किमयअरियउ जउ वरषइ जलधार ।
'तपछत्तीसी' का उद्धरण प्राप्त नहीं हो सका किन्तु इसके नाम से स्पष्ट है कि यह छत्तीसी पद्यों की रचना तप-संयम से सम्बन्धित होगी।
चन्द्रकीर्ति - श्री अगरचन्द नाहटा ने लिखा है कि खरतरगच्छ के लब्धिकल्लोल आपके गुरु थे। किन्तु श्री मो० द० देसाई ने इन्हें हर्षकल्लोल का शिष्य कहा है, और गुरुपरम्परा इस प्रकार बताई है। खरतरगच्छीय कीर्तिरत्न सूरि> लावण्यसमय > पुण्यधीर> १. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४८३ और भाग ३ पृ० ९६२ २. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १७१-१७२ (द्वितीय संस्करण) ३. अगरचंद नाहटा-परम्परा पृ० ८०
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