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गोबर्द्धन - गंगदास
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धर्म स्वरूप के प्रारम्भ में सरस्वती और गणपति की वंदना की
गई है ।
प्रथम सुमरी सारदा, गणपति लागूं पाय,
गुण गाऊं श्री जिणतणा, सुनौ भव्य मन लाय ।
परन्तु गणपति की वंदना से यह न समझा जाय कि रचना का सम्बन्ध जैन धर्म से नहीं है क्योंकि 'कीजै वाणी श्री जिणवर सार, संसार संग उतरै पार, आदि पंक्तियों से जैन धर्म की स्पष्ट महिमा प्रकट होती है ।
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गोबर्द्धन – आपने सं० १६०४ माघ शुक्ल १२, मंगलवार को 'स्थूलभद्र मदन युद्ध' (३७ गाथा ) की रचना की जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ उदाहरणार्थ उद्धृत की जा रही हैं
बुझ (पूछूं) बातडी वछ मोह क्युं जीतउ, फिर-फिर सगरु सराहई दुष्कर करणी कीनी मुनिवर, खोटे कलियुग मांहे । संवत सोल चिहुत्तर बरसइ मिगसर सुदी भृगुवार, द्वादसिदिनि हरखइ करि, बिनवइ गोबर्द्धन सुखकार ।
इनके सम्बध में अन्य सूचनायें अज्ञात हैं । '
गोधो (गोबर्द्धन ) – इन्होंने 'रतनसी ऋषिनी भास' (गाथा ६८) नामक रचना की है । इसका प्रथम छंद देखिये -
श्री नेमीसर जिन नमी, प्रणमी श्री गुरुराय, श्री रतनसी गाइय, मति दिउ सरसति माय ।
गोधो या गोबर्द्धन अमूर्तिपूजक परंपरा से संबद्ध लगते हैं, इनके सम्बन्ध में अधिक सूचनायें उपलब्ध नहीं हैं ।
गंगदास - आप खरतरगच्छीय लब्धिकल्लोल के शिष्य थे । लब्धिकल्लोल जिनसिंह सूरि की परंपरा में विमलरंग के शिष्य थे । आपकी दो रचनायें उपलब्ध हैं—वंकचूलरास और 'तपछत्तीसी' । तपछत्तीसी की रचना सं० १६७५ में हुई । वकचूल रास (१२८ कड़ी) सं० १६७१ श्रावण शुक्ल २, गुरुवार को पातीगांम में लिखी गई थी । रचनाकाल इस प्रकार बताया है
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ६५२-५३ (प्रथम संस्करण)
२. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ खण्ड २ पृ० १५२० (प्रथम संस्करण )
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