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गुणहर्ष - (ब्रह्म) गुलाल
१४१४ आतम ते सेवउ गरुराय ।। गुरुगुण छत्रीसई छत्रीसी, जोयो आगम अवधि,
श्री गुणहरष वबुध वरसीसइ लहीइं सील लवधि ।' गुरुदास ऋषि-पार्श्व स्तवन १९ कड़ो सं० १६९२ अंत-नेत्र नंद रस चन्द्रमा रे, संवत श्री जिन पास कू,
गुरुदास भावै जपै रे, पूरो मननी आस सु नेमिनाथ रेखता छंद, आदि
श्री नेमिचरण वंद, जिम होइ मनि आनंद,
मंगल विनोद पावो, जो नाम नित ध्यावो । अंत-श्री वंश साध सरवर, दुर्गदास कल्पतर वर,
जिसु नाम लच्छि पावइ, सब लोक पगसु ध्यावइ। ध्यान छत्तीसी (१७ कड़ी)
वे जिनवर गोरा कह्या जी, वे रत्नोपल वन्न, वे नीला वे सामला जी, सोलस सोवन वन्न । २ (ब्रह्म) गुलाल-आगरा जिले में यमुना के किनारे टापू नामक गाँव के आप निवासी थे। इनके गुरु का नाम भट्टारक जगभूषण था। आपका समय सं०.१६६२ से सं० १६८४ के आसपास बताया गया है। उस समय टापू का जमींदार कीरति सिंह था और दिल्ली में जहाँगीर का शासन था। टापु के श्रेष्ठ धर्मदास के भतीजे मथरामल ब्रह्मगुलाल के प्रशंसक, मित्र और क्षुल्लक थे। आपकी छह रचनायें हिन्दी में उपलब्ध हैं; वेपन क्रिया, कृपण जगावन कथा या जगावन हार, धर्मस्वरूप, समवशरणस्तोत्र, जलगालन क्रिया और विवेक चौपाई। अन्तिम रचना की प्रति जयपुर के टोलियों के मंदिर में सुरक्षित है । त्रेपनक्रिया में जैनों की तिरपन धार्मिक क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। इसकी रचना सं० १६९५ में हुई। इसके मंगलाचरण की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
प्रथम परम मंगल जिन चर्चनु, दुरित तुरित तजि भजि हो,
कोटि विघन नासन अरिनंदन, लोक सिखरि सुख राजै हो। १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०८८ (प्रथम संस्करण) २. जैन गुर्जर कबिओ भाग ३ पृ० ३८०-८१ (द्वितीय संस्करण)
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