________________
“१४०
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कलश के शिष्य थे । इनके दूसरे गुरुभाई यशोलाभ भी अच्छे कवि थे। आपने सं० १६८५ चैत्र सुदी ३ को धन्याश्री राग में अपनी रचना, सुखनिधान गुरु गीतम का निर्माण किया है। यह कृति ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में ३१वें क्रम पर प्रकाशित है। इसकी भाषा पर रूढ़िग्रस्त अपभ्रंशाभास भाषाशैली का कुछ प्रभाव दिखाई पड़ता है । यथा-सुगुरु के पणमो भवियण पाया,
श्री कलशसमय गुरु पाटि प्रभाकर सुखनिधान गणिराया, हुंवडवंश विख्यात सुणीजइ घरु सुख संपति ध्याया, गुणसेन वदति सुगुरु सेवा तइ दिन दिन तेज सवाया।
गुणहर्ष-आप तपागच्छीय विजयदेव सूरि के शिष्य थे। विजयदेव सूरि का आचार्यकाल सं० १६५८, भट्टारक पद सं० १६७१ और स्वर्ग-वास सं० १७१३ मान्य है। गुणहर्ष ने इसी अवधि में महावीर निर्वाण (दीपमालिका महोत्सव ) स्तवन १० ढाल में लिखा। यह रचना 'चैत्यवंदनस्तुति स्तवनादि संग्रह' भाग १, २, ३ में प्रकाशित है। एक-दो उदाहरण देखिये
जिन तुं निरंजन सजनरंजन दुखभंजन देवता,
द्यो सुख स्वामी मुक्तिगामी वीर तुज पाओ सेवता । गुरुपरंपरा-श्री विजयसेन सूरीश सहगुरु श्री विजयदेव सूरिसरु,
जे जपे अहनिशे नाम जेहनुं वर्धमान जिणेसरु । निर्वाण तवन महिमा भवन वीर जिननु जे भणे,
ते लहे लीला लवधि लक्ष्मी श्री गुणहर्ष वधामणे । गुणहर्ष शिष्य-गुणहर्ष के इस अज्ञात शिष्य ने गुरुगुण छत्तीसी संझाय लिखी है। इन्हें देसाई ने खरतरगच्छीय गुणहर्ष का शिष्य कहा है। रचना से भी गच्छादि का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए इनके संबंध में कुछ निश्चित कह पाना कठिन है। इसका प्रारम्भ देखिये
श्री गुरु गुरु गुरुआ नमुंजी, सदगुरु समकीत मूल,
भण्य तत्व मां मूल गूंजी, सहगुरु तत्त्व अमूल रे । १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० १३६ २. जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ५९५;भाग ३ पृ० १०८८(प्रथम संस्करण)
और भाग २ पृ० ३८१-८२ (द्वितीय संस्करण)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org