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गुणसागर सूरि
१३७ कवि ने धार्मिक उपदेशों और साम्प्रदायिक खंडन मंडन में व्यस्त रहते हुए भी काव्य के सभी तत्त्वों की तरफ ध्यान रखते हुए प्रभूत परिमाण में साहित्यिक रचनायें करके अपनी क्षमता का अच्छा परिचय दिया है। जिनचंद सूरि गीतानि की ११वीं और १२ वीं रचनायें गुणविनय की हैं जो व्रजभाषा युक्त मरुगुर्जर में सरसराग सामेरी में बद्ध है यथा -
सुगरु कइ दरसन कइ बलिहारी, श्री खरतरगच्छ जंगम सुरतरु, जिनचन्द्रसूरि सुखकारी ।
कहइ गुणविनय सकल गुणसुन्दर भावत सब नरनारी ॥' काव्य में राग, लय, यतिगति है और इनके विशाल काव्य संसार में अनेक हरे-भरे सजल सरस स्थल हैं ।
गुणसागर सूरि-ये विजयगच्छ के पद्मसागरसूरि के पट्टधर थे । इनका ढालसागर (हरिवंश ) नामक ग्रंथ ५७५० छन्दों का विस्तृत काव्य है। सं० १६७६ कुर्कुटेश्वर में इसकी रचना हुई। यह प्रकाशित ग्रन्थ है। कृतपुण्य ( कयवना ) रास, स्थूलिभद्र गीत, शान्तिजिन विनती रूप स्तवन, शान्तिनाथ छंद, पार्श्वजिनस्तवन आदि आपकी अन्य प्राप्त रचनायें हैं । कृतपुण्यरास दानधर्म की महिमा पर आधारित २० ढालों की कृति है। स्थूलिभद्र गीत १२ पद्यों की एक लघु रचना विभिन्न रागों में निबद्ध है। इनकी रचनाओं, विशेषतया स्तवनों में भक्तिभाव दर्शनीय है । भगवान के दर्शनों की महिमा बताता हुआ कवि कहता है
'पासजी हो पास दरसण की बलिजाइये, पास मन रंग गुणगाइये । पास वाट घाट उद्यान में, पास नागै संकट उपसमै । पा० । उपसमै संकट विकट कष्टक, दुरित पाप निवारणो ।
आणंद रंग विनोद वारुं अषै संपति कारणो।'३ ढाल सागर का प्रारम्भ-श्री जिन आदि जिनेश्वरु आदि तणो दातार,
युगलाधर्म निवारणो बरतावण विवहार । १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, जिनचन्द्र सूरि गीतानि २. अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० ९० ३. डॉ० हरीश-गुर्जर जैन कवियों की हिन्दी को देन पृ० १२४
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