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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
एक तीसरे गुणविजय भी हैं । वे निश्चय ही इन दोनों से भिन्न हैं उनका विवरण आगे प्रस्तुत है
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गुणविजय - आप भी तपागच्छीय विजयानन्दसूरि के शिष्य कुंवर विजय के शिष्य थे । विजयानन्द सूरि का आचार्यकाल सं० १६७६ और स्वर्गारोहण काल सं० १७११ निश्चित किया गया है अतः इनका भी रचना काल यही होगा । आपकी रचना गुणमंजरी वरदत्त चौपइ अथवा सौभाग्य पंचमी या ज्ञान पंचमी ४९ कड़ी की प्रकाशित कृति है । इसमें ज्ञान पंचमी व्रत का माहात्म्य गुणमंजरी वरदत्त की कथा के दृष्टान्त से समझाया गया है । इसका प्रारम्भ देखिये -
प्रणमी पास जिनेसर प्रेम स्यूं, आणि अति घणो नेह,
पंचमि तप मांहि महिमा घणो कहतां सुणजो रे तेह, चतुर नर । १ इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है
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सकल सुखकर सयल दुखहर गाइवो नेमिसरो,
तपगच्छ राजा बड़ दिवाजा श्री विजय आनंद सूरीसरो । तस शिष्य पदम प्राग मधुकर कोविद कुंअर विजय गणि, तस शिष्य पंचमी तपन भाषें श्री गुणविजय रंग गुणि ॥ ४९१ यह रचना 'चैत्य आदि संझाय' भाग २ में तथा अन्यत्र से भी प्रकाशित हो चुकी है । इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही समय में प्रायः दो-तीन गुणविजय नामक गुणज्ञ कविजन तपागच्छ में आविर्भूत हुए । इनमें काव्य सौन्दर्य एवं रचना प्रसार की दृष्टि से प्रथम एवं द्वितीय महत्वपूर्ण हैं, जब कि मुझे ऐसी भी शंका है कि वे दोनों संभवतः एक ही व्यक्ति हैं ।
( उपाध्याय) गुणविनय - आप खरतरगच्छीय श्री क्षेम शाखा के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय जयसोम के शिष्य थे । आपका साहित्य निर्माण काल सं० १६४१ से सं० १६७६ तक प्रायः २५ वर्षों में फैला है । आपका जन्म सं० १६१३ के आसपास और दीक्षा सं० १६२० के आसपास अनुमानित है । सं० १६४८ में जब युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि सम्राट् अकबर से मिलने लाहौर गये थे उसी समय इन्हें भी वाचक पद प्रदान किया गया था । आप संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २०१ (द्वितीय संस्करण) और भाग १ पृ० ५९४ - ९५ (प्रथम संस्करण )
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