SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (गणि) गुणविनय वेदोशाह की पत्नी वीरमदे की कुक्षि से कोचर का जन्म हुआ था। वह बचपन से ही धर्मपरायण था। उसके गाँव में देवी को बलि दी जाती थी। एक बार वह खंभात गया और वहाँ सुमतिसूरि से उसने यह प्रश्न पूछा और निराकरण के लिए निवेदन किया। महाराज सुमति सूरि ने खंभात के वैभवशाली एवं प्रभावशाली वैश्य शाह देशलहरा को बुलवाया। उनके साथ कोचर को सुल्तान के पास भेजकर जीवहिंसा वंदी का आदेश दिलाया । इस रास में उपरोक्त घटनाओं का सुन्दर वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में सरस्वती वन्दना के बाद कनकविजय की स्तुति और पाटन का उल्लेख किया गया है। इसमें चउपइ, दूहा देशी ढाल और विभिन्न रागों का प्रयोग किया गया है। प्रवाहयुक्त मधुर भाषा का एक नमूना देखिये - मंगलमाला लक्षि विशाला लहीइ लीला भोग रे, ईष्ट मिलइ वली फलइ मनोरथ सिद्धि सकल संयोग रे ।' गुरु परम्परा का वर्णन देखिये श्री तपगछनायक गुरु गिरु आ, विजयसेन गणधार रे, सा हकमानंदन मनमोहन, मुनिजन नो आधार रे । तास विनेय विबुध कूल मंडन, कनक विजय कविराय रे, जस अभिधानि जागर शुभमति, दुर्मति दुरित पलाइ रे । विजयसेन के पश्चात् विजयदेव की चर्चा इसमें नहीं है बल्कि विजयसेन के पश्चात् सीधे कनकविजय या विजयसिंह की चर्चा की गई है। हो सकता है कि कनकविजय के दीक्षा गुरु विजयसेन ही हों। कवि कनकविजय का शिष्य है, यथा-- तस पद पंकज मधुकर सरिषो, लही सरसति सुपसाय रे, इम गुणविजय सुकवि मनहरसि, कोचरना गुण गाय रे । यह संभावना है कि दोनों गुणविजय एक ही व्यक्ति हों क्योंकि दोनों का नाम एक है और दोनों तपागच्छीय मुनि हैं। दोनों के गुरु कमलविजय और कनकविजय विजयदेव या विजय सिंह के शिष्य थे। दोनों का रचना विषय तथा रचना शैली और काव्य-विधा तथा समय लगभग समान है। उनको अलग-अलग कवि सिद्ध करने के ठोस प्रमाण भी नहीं हैं। १. ऐतिहासिक रास संग्रह भाग १, क्रमांक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy