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________________ १२८ मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल – संवत सोलह अठयोतरइ, सज्जन सहूको आनन्द करइ. आसो महीनु अति सुखकार, सुकल चउथि नई सुर गुरुवार गुणविजय गणितभी विजयसिंह सूरि के शिष्य बने होंगे जब वे कनकविजय गणि थे और सूरिपद पर आसीन नहीं हुए थे । इसीलिए कवि ने उनका नाम कनकविजय ही दिया है न कि विजयसिंह सूरि जो सं० १६८१ में सूरि पद पर बैठे थे और यह रचना उससे पूर्व (सं० १६७८) ही हो चुकी थी । जयचंद्र (जयत चंद्र ) रास ( २७६ कड़ी) सं० १६८३ में आसो शुक्ल ९ को डीसा नामक स्थान में रची गई थी किन्तु इसमें भी कवि ने गुरु का नाम कनकविजय ही दिया है, यथाश्री तपगच्छ नो राजी ओ विजयसेन सूरिंद, विजयदेव सूरीसरु, विजयसिंह मुनिचंद | कोविद कनकविजय तणां, प्रणमी पद अरविन्द, गणिगुण विजय भणी मुदा प्रामीयं परमानंद । इसमें लेखक ने विजयसिंह और कनक विजय दोनों नाम दिया है लेकिन प्रणाम कनकविजय को ही किया है । रचनाकाल सं० १६८७ बताया गया है जो देसाई द्वारा बताये सं० १६८३ से भिन्न है अतः ये दोनों प्रश्न विचारणीय हैं । रचनाकाल - संवत सोल सित्यासीइ, आसो महीनइ ओह, नव दिवसे रचना करी, डीसइ आंणी नेह 1 - यह रचना काशी कन्नौज देशाधिपति जयचंद गाहड़वाड से सम्बन्धित है । कोचरव्यवहारी रास - यह रचना ऐतिहासिक रास संग्रह के पहले भाग में पहली कृति के स्थान पर संकलित - प्रकाशित है । तपा गच्छनायक विजयसेन सूरि के समय कविराय कनकविजय के शिष्य गुणविजय ने सं० १६८७ में डीसा में इसे लिखा । उसी वर्ष उसी माह के प्रथम पक्ष में उसी तिथि को इन्होंने जयचंद्र रास भी लिखा था, यथा - संवत सोल सित्यासी वरषे, डीसानयर मझारि रे, आसो वदि न मि ओ निरुपम, कीधउं रास उदार रे । इस रास का मुख्य कथ्य जीव दया है । इसे कोचर के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । पाटन से कुछ दूर स्थित लखमनपुर निवासी १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० २२५ ( द्वितीय संस्करण). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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