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गुण विजय
१२५: जयंकर जेसंगजी गुरुराय, नामि नवनिधि पामिइ जी
दर्शनि दारिद्रजाय, जयंकर जेसंग जी गुरुराय । विजयसेन के बचपन का नाम जयसिंह था। इनका जन्म सं० १६०४ फाल्गुन में पिता कम्माशाह और माता कोडिम दे के यहाँ हुआ था। दीक्षा सं० १६१३, दीक्षानाम जयविमल तथा सं० १६२८ में सूरि पद और नाम विजयसेन सूरि पड़ा। रास से पता चलता है कि इस महान जैनाचार्य का संपर्क फिरंगियों से भी था- "कपीतान काजीमिल्या, पादरी नइ परिवार, पूज्य फिरंगी लेडिया पहुता दीष मझारो रे।'' जै० ऐ० गु० का० संचय पृ० १६९
विजयसिंह सरि (विजय प्रकाश) रास- इस रास की रचना सं० १६८३ की विजयादशमी को सिरोही में हुई। यह २१३ कड़ी की रचना है । इसमें तपागच्छ की गरु परंपरा जगच्चंद्र से प्रारम्भ करके विजय सिंह और कमल विजय तक बताई गई है। विजयसेन को ५९वाँ विजयदेव को ६०वाँ और विजय सिंह को ६१वाँ पट्टधर बताया गया है। कवि कहता है
श्री विजयदेव सूरि सरु, जीवो कोडि वरीस, तिणि निजपाटि थापीओ, कुमति मत गंजसीह । विजयसिंह सूरीसरु, सकल सूरि सिर लीह, रास रच्यू रलीआमणो, मनि आणी उल्लास।
विजयसिंह सूरी तणो सुणयो विजय प्रकाश । रचनाकाल-सोलत्र्यासीआ वर्षि हर्षि सीरोही सुख पायउ जी,
ऋषभदेव प्रभु पाय पसायइं विजयसिंह सूरि गायो जी । कमलविजय जय वंडित पंदित, विद्याविजयगुरु चेलोजी
गुणविजय पंडित इम पयंपइ बाधउ तपगछ वेलो जी। यह रचना भी ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह में प्रकाशित है। रासनायक श्री विजयसिंह का जन्म सं० १६४४ में मेडता के चोरडिया गोत्रीनथमल की पत्नी नायक दे की कुक्षि से हुआ था। सं० १६५२ १. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय पृ० १६९ २. वही पृ० १६६-७० तथा जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ४७२-७३ और
पृ० ५१९ से ५२१ (प्रथम संस्करण) और ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ३४१-३६४
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