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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इन पंक्तियों में छन्दप्रवाह, अलंकृति आदि गुण द्रष्टव्य है ।
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गुणविजय - तपागच्छ के कमल विजय > विद्याविजय आपके गुरु थे आपकी कई उत्तम रचनायें उपलब्ध हैं उनमें ७२० जिननाम स्तवन, "विजयसेन सूरि निर्वाण स्वाध्याय', नेमिजिनफाग, विजयसिंह सूरि ( विजय प्रकाश) रास, वंभणवाडमंडन महावीर फाग स्तवन, शीलबत्तीसी और सामायक संझाय आदि उल्लेखनीय हैं । इनमें से कुछ कई स्थानों से प्रकाशित भी हैं । इनका क्रमशः संक्षिप्त परिचय यहाँ - दिया जा रहा है ।
'७२० जिननाम स्तवन' की रचना सं० १६६८ चैत्र रविवार को जालोर में हुई । कवि ने इसमें अपनी गुरु परंपरा इस प्रकार कही है"श्री विजयसेन सूरीसरु तु भ० श्री विजय देव युवराज तु तस गछि गुणरयणायरु तु भ० सुविहित पंडित सीह तु । श्री गुरु कमलविजय जपु तु भ० विद्याविजय बुध लीह तु, तास सीस इणि परि कहि तु भ० चैत्री दिन रविवार तु, संवत सोल अडसठि तु भ० गढ जालोर मझारि तु
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इसके अलावा अन्य रचनाओं में दी गई गुरु परंपरा से ज्ञात होता है कि ये कमलविजय के शिष्य थे । हो सकता है कि विद्याविजय जी इनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता और विद्यागुरु भी रहे हों । यह चौबीसी २४ तीर्थङ्करों की स्तुति रूप है ।
इस कवि की दूसरी प्रसिद्ध रचना 'विजयसेन सूरि निवणि स्वाध्याय' जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचय और ऐतिहासिक सञ्झाय माला भाग १ में प्रकाशित है । पहले इस कृति को श्री देसाई ने कनक विजय के शिष्य गुणविजय की रचना बताया था । किन्तु द्वितीय संस्करण में इसे सुधारकर प्रस्तुत गुणविजय की रचना बताया गया है । जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट होता है कि यह रचना विजयसेन सूरि के स्वर्गवास से संबंधित है । सं० १६७२ के कुछ बाद ही इसे मेड़ता में कवि ने पूरा किया होगा । इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
सरसति भगवति भारती जी, भगति धरी मनि माय, पाय नमी निज गुरु तणाजी थुणस्युं तपगच्छराय । १. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १३७ (द्वितीय संस्करण ) २. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय पृ० १६६-१७०
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