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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रिषभ शांति नेमीश्वरा, पास वीरपरणाम, ऋद्धि वृद्धि संपति मिलइ, जस लीद्धंतिइ नाम । सहगुरु वचन सुहामणा सुणतां नावइरीस, भूप नमइ जगवस्य हुइ, सहुकोनामइ सीस ।
विमलकमल दल वासिनी वंछित पूरइ आस, सा सारद मनि समरता आपइ वचन विलास, श्री मनमथ नप कुल तिलउ रूपसेन अभिधान,
तास तणी सुकथाकहुं सुणज्यउ सहु सावधान । अन्त-संगति कीजइ साधनी रोमकुशल पूच्छेव,
समरी मंत्र नवकारपद क्षेमराय विकसेव, सू कीजइ न्यायनू रस राखइ बिह ठाणइ,
नाम धरइ निज गुरु तणउ थिर सुखलइनिर्वाणि ।' श्रावकाचार चौपाई-आदि
जग बंधव सामी जिणराय, भगति करी प्रणमु तसु पाय ।
श्रावक भणी कहुं हित सीख, देसविरति कहियै जिनदीख । अन्त-जोई आगम अरथ विचार, ए बोल्यो श्रावक आचार,
__ श्री जिनधर्म करइ जे सार, क्षेमकुशल ते लहइ अपार ।
विमलाचल (शत्रुञ्जय) स्तवन की अन्तिम कड़ियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं
श्री हीरविजय सूरिंद राजि विजयसेन सूरीश्वरु, श्री पंडित मेघ मुणिंद सीसइ, थुण्यो क्षेमकुशल करु ।'
क्षेमराज-आप पावचन्द्र गच्छ के श्री सागरचन्द्र सूरि के शिष्य थे। आपने 'संथार पयन्ना बालावबोध'४ की रचना सं० १६७४ कार्तिक शुक्ल २ सोमवार के दिन पूर्ण की। इनके सम्बन्ध में अन्य विवरण उपलब्ध नहीं है। १. जैन गर्जर कविओ भाग १ पृ० ४६९; भाग ३ पृ० ९४२-९४४ (प्रथम ___ संस्करण) और भाग २ पृ० ३०३-३०५ (द्वितीय संस्करण) २. वही, भाग २ पृ० ३०३-३०५ (द्वितीय संस्करण) ३. वही ४. वही, भाग ३ खण्ड २ पृ० १६०५ (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ.
१८६ (द्वितीय संस्करण)
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