________________
केशराज - केशवजी
रां उच्चरता मुख थकी पाप पुलाई जाय, मत फिरि आवै तेहथी 'म' मो कमाडी थाय । पावन में पावन महा कलिमल हरण अपार, मोक्ष पंथ नो सांभलो सज्जन जीवनो सार । '
कवि राम चरित्र को पावन से भी परम पावन मानता है । इसका कलश अन्त में निम्नांकित है
-
इम रामलक्ष्मण अंते रावण स्त्री सीतानी चिरी,
कही भाखी चरित साखी वचन रचना करि खरी । संघ रंग विनोद वक्ता अने श्रोता सुख भणी, केसराज मुनिंद जंपे सदाहरष वधामणी । "
इसकी भाषा अनुप्रास अलंकार युक्त और प्रवाहमयी है । इसकी विषय वस्तुस्थापना और अभिव्यंजना शैली पर रामचरित मानस का प्रभाव लक्षित होता है । रचना भाव एवं भाषा की दृष्टि से प्रौढ़ है । इसकी एक खण्डित सचित्र प्रतिलिपि का सुन्दर प्रकाशन श्री जैन सिद्धान्त, देवाश्रम, आरा (बिहार) से श्री ज्योति प्रसाद जैन द्वारा सम्पादन हुआ है ।
केशवजी - आप लोकागच्छीय विद्वान् थे । आपने 'लोकाशाहनो सलोको' लिखा जिसका रचना काल अज्ञात है किन्तु १७वीं शती से पूर्व की यह रचना हो ही नहीं सकती क्योंकि केशव जी का समय निश्चित हो चुका है । अतः यह १७वीं शती की ही रचना है । यह कृति केवल २४ कड़ी की है । इसका प्रथम छन्द इस प्रकार है
११५
वीर जिणंद ना प्रणमी पाय, समरी सरसती भगवती माय । गुरु प्रणमी करई सिलोको, इक मनि करी सुणज्यो लोको ।
इसमें लोकागच्छ की स्थापना का तिथिवार विवरण दिया गया है, जैसे----
संवतु पन्नरसत अडवरषी सिद्धपुरीइ शिवपद हरषी, खोली थापउ जिनमत शुद्ध लु कइ गच्छ हुओ परसिद्ध ।
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १०१५ (प्रथम संस्करण ) २. वही, भाग १ पृ० ५२४ (प्रथम संस्करण ) ३. वही, भाग ३ पृ० १०९४ (प्रथम संस्करण )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org