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कुशलवर्द्धन • कुशलसागर
सो सांति जिणेसर प्रणमता टालि मननी भ्रांति ।
राजसागर गुरु मनोहरु, जम ग्रह चंद्र उपंत,
कुशल सागर रंगि करी कुलध्वज गुण गावंत । रचनाकाल-मुधा नगर मांहि वली कुल धज स्तवो रे कमार जी रे,
संवत सोल चउआलइ, आसो वदि पूनम सार जी।' यह कुल ६२४ कड़ी की रचना है। इसकी अन्तिम कड़ी इस प्रकार है
गणि कुंअर जी मंगल करु, सासना सूरी तेणीवार जी रे ।
कुलधज नामि सेवक वली, पामि मंगल जिकार जी रे । कवि ने भाषा में भरती का शब्द 'जी' अत्यधिक प्रयोग करके उसे शिथिल बना दिया है।
जैन साहित्य में कुलध्वज की कथा पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसके माध्यम से कवि उच्च चारित्र्य का संदेश पाठकों को देते रहे हैं। प्रस्तुत कृति भी उपदेशात्मक है तथा काव्यत्व की दृष्टि से अति सामान्य कोटि की है। इससे यह प्रकट होता है कवि का एक अपर नाम 'कुंवर गणि' भी था जैसा कि ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट हो चुका है
इनकी दूसरी रचना 'सनतकुमार राजर्षिरास' सं० १६५७ आषाढ़ शुक्ल ५ को लिखी गई, जो निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है
संवत सोल सतावनि थणीउ सनतकमार जी रे।
आषाढ़ सुदी पाचम भली, रचीउ रास उदार जी रे । कवि के हाथ की लिखी हस्तलिपि सं० १६६३ की प्राप्त है यथा, गणि कुंअर जी लषत संवत् १६ त्रिसठा वरष,
चैत्र वदि पांचम लोभे आणंद भोमे लष्यंत । जैन गुर्जर कविओ, प्रथम संस्करण के भाग ३ पृ० ८७८ पर श्री देसाई ने इस रचना का कर्ता श्री राजसागर शिष्य कुंअर जी को बताया है । वस्तुतः कुंअरजीगणि और कुशलसागर एक ही व्यक्ति हैं। १. जैन गुर्जर कविओ (प्रथम संस्करण) भाग ३ पृ० ७७९-७८० २. वही, (द्वितीय संस्करण)भाग २ पृ० २३३-२३४
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