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वाचक कुशललाभ
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गद्यवार्ता में भी पाई जाती है । दोहे पुराने हैं जैसा - ' दूहा घनह पुराणा अछह' से सिद्ध है । अधूरे दोहों को कथासूत्र में बैठाने के लिए कवि ने इन्हें चौपाइयों से जोड़ दिया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का विचार है कि यह घटना ११वीं शताब्दी की है । तब से यह कथा मौखिक रूप में चली आ रही थी और राजस्थान के जनजन का कंठहार हो गई थी । ढोला का नाम नाल्ह भी था । दो तीन वर्ष की छोटी आयु में ही उसका मारवणी से विवाह हो गया था । युवावस्था में उसकी सादी मालवा की राजकुमारी मालवणी से हो गई । वह उसे मारवणी से नहीं मिलने देती थी किन्तु एक दिन वह ऊँट पर चढ़कर मारवणी के पास पहुँचा और १५ दिन ससुराल में आनन्द पूर्वक व्यतीत कर घर के लिए वापस चला। मार्ग में बड़ी बाधायें आईं। मारवणी को सर्प ने डस लिया । अमरसूमरा ने उसके अपहरण की कोशिस की, किन्तु अन्त में सच्चे प्रेम की विजय हुई और घर पहुँचकर दोनों आनन्द पूर्वक रहने लगे । इस रचना में देश वर्णन रूप वर्णन, ऋतु वर्णन, यात्रा वर्णन आदि प्रभावशाली है । इसकी भाषा चारणों की द्वित्त प्रधान, कर्णकटु बनावटी भाषा से भिन्न सहज लोक प्रचलित भाषा है । यद्यपि यह अपने मूल रूप में सुरक्षित नहीं है तथापि इससे मध्यकालीन राजस्थानी के लोक प्रचलित भाषा रूप का अनुमान करने में बड़ी सहायता मिल सकती है ।" आपकी 'गुण सुन्दरी चउपइ' सं० १६४८ की प्रति दिगम्बर जैन तेरह पंथी मंदिर नैणवा में सुरक्षित है।
ढोलामारु, माधवानल जैसी शृङ्गार परक रचनाओं के अलावा आपने स्थूलभद्र छत्तीसी, पूज्य वाहण गीत, तेजसार रास जैसी शांत रसप्रधान धार्मिक रचनायें भी की हैं जिनका संक्षिप्त परिचय पूर्व में दिया जा चुका है । स्थूलिभद्र छत्तीसी स्थूलिभद्र की भक्ति के माध्यम से गुरुभक्ति का उपदेश करने वाली रचना है । अपराध हो जाने पर शिष्य उदार गुरु से क्षमा की आशा रखता है । इस सन्दर्भ में कवि ने लिखा है
१. हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३ पृ० ४१८ प्रकाशक नागरी प्रचारिणी सभा, काशी
२. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची ५वां भाग पृ० ४३६
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