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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अंत -- जगनाथ पास जिनवर जयो मन कामित चिंतामणि, कवि कुशललाभ संपतिकरण धवल धींग गोड़ी धणी । नवकार छंद-१७ कड़ी की प्रकाशित रचना है । यह जैन काव्य प्रकाश भाग १ में छपी कृति है । कवि कहता है
नवकार सार संसार छे कुशललाभ वाचक कहे, ओक चित्ते आराधीइ विविध ऋद्धि वंछित लहे ।
इसमें नवकार मंत्र का माहात्म्य वर्णित है । कवि कुशललाभ शृङ्गार और शान्त दोनों ही रसों के श्रेष्ठ कवि सिद्ध होते हैं । इनकी भाषा भावानुकूल, परिमार्जित एवं प्रभावशाली है । अलंकारों और छंदों का यथावसर उत्तम उपयोग किया गया है ।
ढोला मारु की विशेषतायें - इनकी समस्त रचनाओं में ढोला मारु सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है । यह राजस्थानी लोक भाषा का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है । यह भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है । यह एक लोक प्रचलित प्रेमकाव्य है । इसमें शृङ्गार के दोनों पक्षों का सरस वर्णन किया गया है । युवती मारवणी स्वप्न में अपने प्रिय का दर्शन कर प्रेममग्न हो जाती है । स्वप्न भंग होने पर पूर्व रागजन्य विरह से उसे व्याकुल देखकर सखियाँ पूछती हैं
अम्हां मन अचरिज भयउ, सखियाँ आखइ एम, तइ अणदिट्ठा सज्जणां किउ करि लग्गा प्रेम ।
इसमें मारवणी और मालवणी के साथ नायक ढोला के सुखद जीवन के कई सुन्दर वर्णन हैं । मध्य कालीन काव्य में प्रयुक्त समस्त काव्य रूढ़ियाँ जैसे प्रेमिका द्वारा स्वप्न में प्रिय का दर्शन, दूत- दूती प्रेषण, प्रेम मार्ग की कठिनाइयाँ, ऋतु वर्णन, वारहमासा, शुक संदेश पशु पक्षियों एवं अलौकिक पात्रों का समावेश आदि पाया जाता है ।
कथासार — यह कछवाहा राजा नल के पुत्र ढोला और पूगल कै राजा पिंगल की कुमारी मारवणी की प्रेमकथा है । सभा ( नागरी प्रचारिणी काशी ) द्वारा प्रकाशित ढोलामारु में रचनाकाल सं० १६१८ दिया गया है । डॉ० मोतीलाल मेनारिया सं० १६१७ और पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र सं० १६०७ बताते हैं किन्तु सं० १६१७ ही अधिक युक्तिसंगत लगता है । यह रचना दोहा चौपाई के अलावा दूहा और
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