SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसका आदि-देवि सरसति देवि सरसति सुमति दातार । कासमीर मुख मंडणी ब्रह्मपुत्र कर विणा सोहे, मोहन तरुवर मंजरी मुख मयंक त्रिभुवन मोहे । पद पंकज प्रणमी करी आणीमन आणंद, . सरस चरित्र शृंगार रस पभणीस परमाणंद । इसमें माधवानल और कामकंदला की शृंगार कथा का वर्णन है। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है संवत सोल सोलोतरई, जेसलमेरु मझारि, फागण सुदि तेरसि दिवसे विरची आदितिवार । गाहा दूहा ने चुपइ कवित कथा सम्बन्ध, कामकंदला कामिनी माधवानल प्रबन्ध । कुशललाभ वाचक कहइ सरस चरित सुप्रसिद्ध, जे वाचइ जे सांभलइ तीओ मिलइ नवनिधि ।' ढोलामारुरादूहो-यह भी एक प्रबन्ध काव्य ही है । इसके सम्बन्ध में आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'हिन्दी साहित्य के आदिकाल' में लिखा है कि कवि ने दूहा में चौपाइयां मिलाकर इसमें प्रबन्धात्मकता उत्पन्न कर दी है। इसमें राजस्थान की प्रसिद्ध प्रेमकथाका , जो ढोला और मारु के प्रेम पर आधारित है, वर्णन किया गया है। दोनों रचनायें काव्य आनंद महोदधि में भी प्रकाशित हैं। कुशललाभ राजस्थान के प्रख्यात कवियों में अग्रगण्य हैं । गुजराती राजस्थानी और हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने आदर पूर्वक इनका अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। ढोलामारु को दूहा के अलावा वार्ता और रास आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इसमें ७०० कड़ी हैं। यह सं० १६१७ वैशाख सुदी ३ जैसलमेर में लिखी गई थी। 'इसके अन्त में कवि ने सम्बन्धित विवरण दिया है, यथा-- गाथा सातसइ अह प्रमाण, दूहा नइ चउपइ वषाण । यादव राउल श्री हरिराज, जोड़ी तास कुतूहल काजि । रचनाकाल-संवत सोल सय सत्तरोत्तरइ, अषा त्रीजिवार सुरगुरुइ, जोड़ी जैसलमेर मझारि, सुणतां सुख पामइ संसारि । १. श्री कस्तूर चन्द कासलीवाल - प्रशस्ति संग्रह पृ० २४७ २. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग २ पृ० ८०-८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002091
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages704
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy