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'भट्टारक कुमुदचन्द्र
१०५ ऋषभ जिनवर ने प्रासादे, संभलीये जिनगान सुसादे ।
रत्नकीरति पदवी गुणपूरे, रचिले छन्द कुमुदशशि सूरे ।' इसका अर्थ १६०७ के वजाय १६७० युक्तियुक्त है । इसका मंगलाचरण--
पणविवि पद आदीश्वर केरा, जेह नामें छूटे भवफेरा।
ब्रह्मसुता समरु मतिदाता, गुणगण मंडित जगविख्याता।' वीररस का वर्णन देखिये
चल्यामल्ल अखाड़े वलीआ, सुरनर किन्नर जोत भलीआ। काछया काछ कही कड़ताणी, बोले बागउ बोली वाणी । भुजा दंडमनु सुडउ समाना, ताडतां वंखारे नाना ।
हो होकार करि ते धाया, वछोवच्छ पड्या ले राया। ऋषभविवाहलो का समय भी सं० १६०८ न होकर सं० १६७८ ही उचित प्रतीत होता है । इसमें मुक्ति वधू के साथ ऋषभ के आध्यात्मिक विवाह का सोल्लास वर्णन है। इसका मंगलाचरण देखिये--
समरवी सरसती द्यौ माइ शुभमति करो वरवाणी पसाउलो ,
प्रथम तीर्थंकर आदि जिनेश्वर वरणवु तास विवाहलो अ।१ अन्तिम पंक्तियों में रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है--
'संवत सोल अणेतरो ए मास अषाढ़े घनसारसु' गुरुपरम्परा--लक्ष्मीचन्द्र पाटे निरमलो ए अभयचन्द्र मुनिराय,
तसपट्ट अभय.......... रतनकीरति शुभकाय ।
कुमुदचन्द्रे मन ऊजलोए........... इत्यादि आपके शिष्यों में ब्रह्मसागर, धर्मसागर, जयसागर, संयमसागर और गणेशसागर उल्लेखनीय हैं। ये सभी अच्छे लेखक और साहित्यकार थे। इनमें से कुछ ने अपने गुरु की प्रशस्ति में सुन्दर साहित्य रचा है । समयसागर ने इन्हें ३२ लक्षणयुक्त कहा है
ते बहु कूखि ऊपनो बीर रे, बत्तीस लक्षण सहित सरीर रे ।
धर्मसागर ने इनकी तुलना गौतम गणधर से की है। इनकी त्यागतपस्या, विद्वत्ता से प्रभावित होकर अनेक लोगों में धर्म के प्रति श्रद्धा १. डॉ० कस्तूर चन्द कासलीवाल-प्रशस्ति संग्रह पृ० २४३ २. वही, पृ० २०६
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