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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
प्रणयगीत, हिण्डोलनागीत, वणजारागीत, शीलगीत आदि गेय पदों में स्वरमाधुर्य उच्चकोटि का है । इनके पद सूर- तुलसी के पदों के मेल में हैं, यथा
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मैं तो नरभव वादि गँवायो ।
कियो न जपतप व्रत विधि सुन्दर काम भलो न कमायो 1
या 'जो तुम दीनदयाल कहावत' आदि पद बड़े भक्तिभावपूर्ण एवं मार्मिक हैं । इनके पदों का संग्रह दिगम्बर जैन क्षेत्र श्री महावीर जी साहित्यशोध विभाग जयपुर से प्रकाशित 'हिन्दी पद संग्रह' (सम्पादक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल) में संकलित हैं । आपकी रचनाओं में अध्यात्म एवं भक्ति के साथ शृंगार एवं वीर आदि रसों का भी यत्रतत्र अच्छा परिपाक हुआ है । इनकी विनतियाँ तो मानो भक्तिरस की पिचकारियाँ हैं, यथा
प्रभु पाय लागू करुं सेव थारी,
तुम सुनलो अरज श्री जिनराज हमारी । घणौं कष्ट करि देव जिनराज पायो, सबै संसार नौं दुख बाम्यो । जब श्री जिनराज नौ रूप दरस्यो,
जब लोचना सुष सुधाधार वरष्यो ।”
विनतियों में त्रेपन क्रिया विनती १३ पदों की उल्लेखनीय रचना है । इसका मंगलाचरण देखिये
"वीर जिणेसर मनि धरुं, प्रणम् गुरु पांय ।
त्रेपन किरिया नो विचार, कहि सुं सुखदाय ।" "
आपकी प्रमुख गीत रचनाओं में हिंडोलागीत, सप्तव्यसनगीत, अठाईगीत, भरतेश्वरगीत, पार्श्वनाथगीत, आरतीगीत, जन्मकल्याणक - गीत, दीपावलीगीत, नेमिजिनगीत, जीवडागीत आदि प्रसिद्ध हैं । इनके प्रसिद्ध प्रबन्धकाव्य भरतबाहुबलि छन्द का रचनाकाल श्री अगरचन्द नाहटा ने सं० १६०७ बताया है पर यह युक्तिसंगत नहीं लगता । रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है
"संवत सोरह से सतसहे ज्येष्ठ शुक्ल पक्षे तिथि छहें । रविवार वारे घोघानगरे, अति उत्तुङ्ग मनोहर सुधरे । १. डाँ० कस्तूर चन्द कासलीवाल – प्रशस्ति संग्रह पृ० २२१ २. श्री अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ० ९२
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