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१.२
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मेघजी इनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इनके शिष्य हो गये । उन्हें विजयसेनसूरि नाम देकर अपना पट्टधर बनाया। आगरे की श्राविका चपा के छह मास के उपवास व्रत की चर्चा से प्रभावित हो अकबर ने इन्हें बुलवाया और सं० १६४० ज्येष्ठ शुदी १३ को हीरजी बादशाह अकबर से उसके महल में मिले। आचार्य के सत्संग से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें जगद्गुरु की पदवी दी और जैन तीर्थ करमुक्त किये आदि। आगे लोंकागच्छीय मेघजी किस प्रकार तपागच्छ में दीक्षित होकर विजयसेन आचार्य बने इसका उल्लेख है
'लुका मतीनो गछपति जेह, मेघजी आचारज नामे तेह, तपगछ मारग तस मन रमीउ, आवी हीरजी ने पासे नमीउं ।
पूज्य जी आचारज था आणंद, नामे श्री विजयसेन सूरीद।१ सलोको की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है ----
हीरजी नो चेलो वलीय वरखाणो, नामे विजयचन्द पंडित जाणो, जयगुरु केरा जे गुण गाई, तस मनवंछित सकल फलाई ।
भट्टारक कुमुदचन्द्र-आप भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य थे जिन्होंने वारडोली में अपना पट्ट स्थापित किया था। गुजरात के इसी प्रसिद्ध नगर में भट्टारक रत्नकीर्ति ने इन्हें सं० १६५६ वैशाख मास में भट्टारक पद पर स्थापित किया था इसलिए ‘इन्हें वारडोली का सन्त' भी कहा जाता है। इनके शिष्य गणेश कवि ने इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है--
"संवत सोल छपने वैशाखे प्रगट पटोधर थाप्या रे । रत्नकीर्ति गोर वारडोली वर सूरमंत्र शुभ आप्यारे । भाई रे मनमोहन मुनिवर सरस्वती गच्छ सोहंत ।
कुमुदचन्द्र भट्टारक उदयो भवियण मन मोहंत रे ।" ३ आपका जन्म गोपुर ग्राम में मोढ़वंशीय श्री सदाफल की पत्नी पद्माबाई की कुक्षि से हुआ था। विद्यार्थी अवस्था में ही ये भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य हो गये और गहन अध्ययन तथा कठोर संयम का पालन किया। वारडोली के सन्त नाम से प्रसिद्ध हुए। आपने १. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय पृ० १९९ २. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग २ पृ० २८९ ३. श्री कस्तुरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत पृ० १३५-१४०
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