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कुंअरजी - कुंवरविजय
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जिन प्रतिमा जिन सम लेखियइ । ताको निमित्त पाय उर अन्तर राग द्वेषनहि देखियइ । सम्यग्दिष्टी होइ जीव जे, जिण मन ए मति रेखीयइ ।
वीतराग कारण जिणभावन, ठवणा तिणही पेखियइ । चेतन कंवर भये निज परिणत, पाप पुन दुइ लेखियइ ।'
बनारसीदास के पाँच प्रिय मित्रों रूपचंद, चतुर्भुज, भगौतीदास, धर्मदास और कुंवरपाल में कुंवरपाल का स्थान महत्वपूर्ण था। अपनी रचना समकितबत्तीसी में कवि ने लिखा है -
'पुरि पुरि कंवरपाल जस प्रगटयौ, बहुविध ताप वंस वरणिज्जइ, धरमदास जस कंवर सदा धनि, वउसाखा विसतर जिम कीजइ।'
कुवरविजय-तपागच्छीयहीरविजय > विजयचन्द्र > नयविजय के शिष्य थे। सं० १६५२ के पश्चात् इन्होंने 'श्री हीरविजयसूरिसलोको, की रचना की । यह रचना ऐतिहासिक जैन गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है। आपकी अन्य रचना 'चौबीस जिन नमस्कार' का उल्लेख भी देसाई जी ने किया है। हीरविजयसूरिसलोको ८१ कड़ी की रचना है। इसका आदि इस प्रकार है :'सरमती वरसती वाणी रसाल, चरणकमल नमी त्रिकाल, श्री गुरुपदपंकज धारउं, हीरविजय सूरि गछपति गाऊं।'
रास से पता लगता है कि हीरविजयसूरि ने अकबर को प्रभावित करके सम्मेतशिखर, तारंगा आदि तीर्थ श्वेताम्बरों को दिलाया था। इनके सम्बन्ध में हीरसौभाग्य नामक महाकाव्य, ऋषभदास कृत 'हीरविजयसूरिरास' और विजयप्रशस्ति आदि कई ग्रंथ लिखे गये हैं। प्रस्तुत सलोको में बताया गया है कि आपका जन्म पालनपुरके ओसवाल वंशीय कुंवर जी की पत्नी नाथी की कुक्षि से सं० १५८३ में हुआ था। आपने पाटन में सं० १५९६ में विजयदान से दीक्षा ग्रहण की और सं० १६१० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। लुकागच्छ के १. डॉ० प्रेमसागर जैन ---हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० १९८ २. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय;
जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृ० ३१२ (प्रथम संस्करण) और भाग ३ पृ० ८८२ (प्रथम संस्करण)
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