________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कुंअर जी (II) तपागच्छीय हर्षसागर के प्रशिष्य एवं राजसागर के शिष्य थे । आपने सं० १६५७ आषाढ़ शुदी ५ को एक रचना 'सनत् कुमार राजर्षिरास' नाम से की, इसमें रचनाकाल कवि ने इस प्रकार बताया है
१००
-
संवत सोल सतावनि थुणीउ ( सकती ) सनतकुमार जी रे, आषाढ़ सुदि पांचम भली रचीउ रास उदार जी रे । गुरुपरंपरा - तपगछनायक दीपतो, श्री विजिसेन सूरंद जी रे, तस पट्टि विजिदेव गुणनिलो, टालि सघला दंद रे । उवज्ञाय श्री श्री हरषसागर, तास सीस पंडित भलो, सोभाग श्री राजसागर प्रगटो कुल महाकुलतलो । तससीससोभागी गणि कुंअर जीइ, सकती कुमरना गुण थुना, दिइ संपदा सारी सुखकारी पास संखेसर मि सुना ।" कवि ने स्वयं सं० १६६३ में इसकी प्रतिलिपि लिखी थी, "गणि कुंअर जी लषतं संवत १६ त्रिसठां वरष, चैत्र वदि पाचम भोमे सानंद ग्रामे लष्यंत ।"
Jain Education International
यथा
कुअरपाल - आपके पिता का नाम अमरसिंह था । वे ओसवाल वंशीय चौरड़िया गोत्र के थे। इनके चाचा जासू के पुत्र धरमदास या धरमसी के साझे में कवि बनारसीदास ने आगरे में जवाहरात का कारोबार किया था । इसी संबंध से कुंअरपाल और बनारसीदास घनिष्ठ मित्र हो गये थे । इन्हें शिष्ट समाज में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी । पाण्डेय हेमराज ने इन्हें 'कौरपाल ज्ञाता अधिकारी' कहा है । महोपाध्याय मेघविजय ने मुक्तिप्रबोध में इनकी सर्वमान्यता का उल्लेख किया है । कवि ने अपनी रचना 'समकितबत्तीसी' में स्वयं लिखा है "पुरि पुरि कंवरपाल जस प्रगट्यौ ।" कुंवरपाल के हाथ का लिखा एक गुटका सं० १६८४ का प्राप्त है जिसमें आनंदघन के पद, द्रव्यसंग्रह भाषा - टीका आदि रचनाओं के साथ कुंवरपाल की भी रचनायें संग्रहीत हैं । समकित बत्तीसी में ३३ पद्य हैं । यह रचना आत्मरस से सम्बन्धित है । सं० १६८४-८५ वाले गुटके में संग्रहीत कवि के एक पद्य में जिनप्रतिमा के प्रति कवि का भक्तिभाव इस प्रकार व्यक्त हुआ है :---
१. जैन गुर्जर कविओ (प्रथम संस्करण ) भाग ३ पृ० ८७८-८७९
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org