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कीर्तिविमल - कुवरजी
इनकी एक अन्य रचना 'गजसिंहकुमार' का भी पता चलता है किन्तु विवरण उपलब्ध नहीं हो सका है।
कीतिविजय-तपागच्छीय कानजी आपके गुरु थे। आपने सं० १६७२ में 'विजयसेनसूरि निर्वाण सञ्झाय' की रचना विजयसेन सूरि के स्वर्गवासी होने के बाद की। यह ४७ कड़ी की रचना है । इसके प्रारम्भ में अकबर का उल्लेख है यथा-'जवहरी सांचो रे अकबर साहजी रे' इसी ढाल पर सरस्वती की वंदना प्रारम्भ होती है
'सरसति भगवति चित्त धरीरे, प्रणमी निज गुरु पाय रे । हरि पटोधर गायतां रे मुझ मनि आणंद थाय रे,
तु मनमोहन जे संग जी रे।' इसकी अंतिम पंक्तियाँ देखिये
हीर पटोधर संघ सुखकर विजयसेन सूरीसरो, में थुण्यो सूर सवाइ अविचल विरुद महिमामंदिरो। जास पाटि प्रगट प्रताप दीपे विजयदेव दिवाकरो,
कान जी पंडित सीस कीरतिविजय वंछित करो।" कुंवरजी-१७वीं शताब्दी में कुंवरजी नामक दो कवियों का उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत कुंवर जी लोकागच्छीय रूपजी के प्रशिष्य एवं जीवराज के शिष्य थे। आपने सं० १६२४ श्रावण सुदी १३ गुरुवार को 'साधुवंदना' नामक रचना की । इसका प्रारम्भ देखियेत्रिभुवन माहि तिलक जिणिंद, सीषां महियल वलीय मुणिंद,
काल अनादि अनंता जोई, निति प्रणमउ करजोडी दोयउ । अंत-मुनि रूपसुन्दर देवकुंवर जीवउ तेज सुभास ,
जगि मेघ जीवन जन आनंदन तेज ससि रवि दास , इम सुगुण दाखीय नाम भाखी हरिष सिउं मुनि गाइयइ नर अमर शिव सुख सम्पति वेगि अणी परि पाइयइ ।' सं० १६९१ में ऋषि केशव द्वारा लिखित इसकी प्रति उपलब्ध है जिसमें लोकागच्छ के आठ पाटों का नाम दिया गया है : रूपजी, जीवऋषि, कुंअरजी, श्रीमल्लजी, रत्नाकरजी, केशवजी, शिवजी, संघराज जी। १. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग ३ पृ० १७६ २. वही, भाग २ पृ० १३८-१३९ (प्रथम संस्करण) भाग ३ पृ० ७०८
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