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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इससे स्पष्ट है कि यह रचना सं० १६९७ विजयादशमी, रविवार को लिखी गई, और लेखक का नाम मुनि केशव भी था। गुरु परंपरा बताते हुए कवि ने अपना नाम कीर्तिवर्द्धन भी लिखा है इससे प्रमा. णित होता है कि कीर्तिवर्द्धन और केशवमुनि एक ही व्यक्ति थे। सन्दभित पंक्तियाँ देखिये ....
श्रीखरतरगछ गगन दिणंद, प्रतपे श्री जिनहरष सूरींद, शिष्य तास बहुविदविचार, दीपता दयारत्न दिनकार । मुनि कीरतिवरधन शिष्यतास, बंधन जिन राखण रंग रास ।'
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केशवमुनि या मुनिकीर्तिवर्द्धन एक ही व्यक्ति थे और वे खरतरगच्छीय जिनहर्ष के प्रशिष्य तथा दयारत्न के शिष्य थे। यह रचना प्रसिद्ध है और कई जगह से प्रकाशित भी है। इनकी अन्य रचनाओं का समय रीतिकाल की संधि में पड़ता है और प्रीत छत्तीसी, दीपक बत्तीसी तथा चतुरप्रिया आदि हिन्दी रीतिकाल से प्रभावित रचनायें हैं । चतुरप्रिया प्रसिद्ध हिन्दी कवि केशवदास की कविप्रिया, रसिकप्रिया की शैली पर लिखी नायक-नायिका भेद से सम्बन्धित रचना है।
‘एक सावलिंगा सदयवत्स या सुदेवच्छ सावलिंगा चौपाई' के रचयिता तपागच्छीय विजयसेनसूरि के शिष्य केशवविजय हैं । उनका विवरण यथास्थान दिया जायेगा। यहाँ मात्र इसलिए उल्लेख कर दिया कि इस कृति के रचनाकारों के संबंध में भ्रम न रहे। केशव मुनि को जैन गुर्जर काव्य द्वितीय आवृत्ति के संपादक श्री कोठारी ने कीर्तिवर्द्धन के शिष्य होने की संभावना व्यक्त की है।
कोतिविमल-तपागच्छ के विजयविमल की परंपरा में आप लालजी के शिष्य थे। आपने विजयदेवसूरि के समय 'चतुर्विंशति जिन स्तवन' नामक रचना की । इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
विजय विमल विमलविबुध सीस सिरोमनि पंडित लालजी,
गणिवरु तस सीस पभणइ कीतिविमल बुध ऋषी मंगलकरु ।' १. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण ) भाग ३ पृ० ३३२ और भाग ३ _पृ० १०८३ (प्रथम संस्करण) २. वही, (द्वितीय संस्करण) भाग ३ पृ० १७७, (प्रथम संस्करण) भाग १
पृ० ५९५
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