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केशब
होने पर कीर्तिरत्न सूरि की प्रथम रचना के एक वर्ष बाद ही उनकी यह दूसरी रचना संगत प्रतीत होगी। दोनों रचनाओं की भाषाशैली और विषय-वस्तु में भी प्रायः समानता है। दोनों के गुरु एक ही हैं। इस रचना में भी कवि ने तेजरत्नसूरि को गुरु बताया है यथा
भलो भाव भगतें भलो जगते पुरिसादाणी स्तनवणी, श्री तेजरतन सूरिंद सीसो स्तवो गोडीपुर धणी ।६०।'
अतः यह रचना तेजरत्न शिष्य कीर्तिरत्नसूरि की हो सकती है। इसका आदि इस प्रकार लिखा गया है -
"सरस वचन सरसति तणा पामी अविचल मत,
श्री गोड़ी पार्श्व जिणंदनी स्तव सूं जिनगुणकीरत ।" इसके अन्त का 'कीरत' लेखक के नाम कीर्तिरत्न का सूचक भी हो सकता है। __कीतिवद्धन या केशव--श्री अगरचंद नाहटा ने कीर्तिवर्द्धन और केशव को एक ही व्यक्ति बताया है। ये खरतरगच्छीय श्री दयारत्न के शिष्य थे। इन्होंने सदयवत्स सावंलिंगा चौपइ सं० १६९७, सुदर्शन चौपई (सं० १७०३), प्रीतछत्तीसी, दीपकबत्तीसी, अमरबत्तीसी, चतुरप्रिया तथा जन्मप्रकाशिका नामक रचनायें हिन्दी (मरुगुर्जर) में की। इससे प्रमाणित होता है कि ये अच्छे कवि थे। सदयवत्ससावलिंगा चौपइ शार्दूल रिसर्च इन्स्टीट्यूट से प्रकाशित है और जैन ऐतिहासिक काव्यसंग्रह में भी पृष्ठ १०२ पर संग्रहीत है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
स्वस्ति श्री सोहग सुजस, वंछीत लील विलास,
दायक जिननायक नम, पूरण आस उल्लास । रचनाकाल-संवत मुनि निधि रस शशि विजयदसमी रविवार
___चतुर चाही रची चौपइ मुनि केशव हितकर । १ जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग २ पृ० २ २. श्री अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० ८८ ३. जैन गुर्जर कविओ (द्वितीय संस्करण) भाग ३ पृ० ३३१-३२ ४. वही, (द्वितीय संस्करण ) भाग ३ पृ० ३३२ और (प्रथम संस्करण)
भाग ३ पृ० १०८३
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