________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'कीतिरत्नसूरि विवाहलु' या चउपइ लिखी है जिसकी रचना-तिथि अज्ञात है किन्तु ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह के सम्पादक ने उसे १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की माना था अतः उसका विवरण वहीं दे दिया गया है। प्रस्तुत कल्याणचंद्र के सम्बन्ध में इससे अधिक विवरण नहीं प्राप्त हो सका और न रचना का उद्धरण ही मिल पाया।
कल्याणदेव-आप खरतरगच्छीय जिनचंद्र सूरि की परम्परा में चरणोदय के शिष्य थे। आपने सं० १६४३ में वछराज देवराज चौपइ' की रचना बीकानेर में की। श्री नाथराम प्रेमी इसे सामान्य कोटि की रचना बताते हैं। डॉ० भगवानदास तिवारी ने इस कथात्मक कृति का रचनाकाल सं० १५८६ बताया है जो अशुद्ध है। श्री देसाई और श्री नाहटा दोनों ने ही इसका रचनाकाल सं० १६४३ स्वीकारा है जो लेखक की इन पंक्तियों से सम्मत है
'संवत सोल त्रयाली बरसइ, प्रबंध कियउ मनहरसइ,
विक्रम नयर रिषभ जिणेसर, जस समरण सवि टलइ कलेस ।' गुरुपरंपरा
श्री जिनचन्द्रसूरि गछनायक, सेवकजन वंछित सुखदायक, चरणोदय गुरु सीस सुजाण, मुकी कुमति कुदाग्रह काण ।
x
कहइ कल्याणदेव गुरु ध्यावइ, इह रति परति तणा सुख पावइ । इस कृति का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
जिनवर चरण कमल नमी, सुहगुरु हियइ धरेसि,
समर्या सवि सुष संपजइ, भाजइ सयल कलेस ।' इसमें दो राजकुमारों की कथा हैं जिनके दृष्टान्त द्वारा बुद्धिकौशल की प्रशंसा की गई है। रचना मरुगुर्जर भाषा में की गई है किन्तु राजस्थानी का प्रभाव स्वभावतः अधिक है।
कल्याण विजय-आप तपागच्छीय विजयसेन सूरि के शिष्य थे। आपने एक 'चौबीसी' लिखी है जिसमें २४ तीर्थंकरों की स्तुति है। रचना का अन्त निम्नलिखित कलश से हआ है
१. श्री अगर चन्द नाहटा–परम्परा पृ० ७६' जैन गुर्जर कविओ भाग २
(प्रथम संस्करण) पृ० ७६८; भाग २ (नवीन संस्करण) पृ० २१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org