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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अहमदाबाद हबतपुर माहइ, चंद्रप्रभु पसाय जी, कटुकगण सदा जयवंतु सेवे कल्याण थाय जी । ' इसका आदि देखिये-
ऋषभादिक चउवीस जिन, नामिइ नित्य नित्यरंग, वैर विरोध ने परिहरउ, संभली अमरतरंग । वैर न कीजइ भवीकजन, वैरइ वैर विवृधि, सुन्दर सुरप्रीयनी परइ मूकइ सुणी संबंध |
इसमें समरादित्य के चरित्र के दृष्टान्त से वैर-विरोध के शमन का सन्देश है। श्री देसाई ने कल्याण की गुरुपरम्परा खरतरगच्छ के जिनचंदसूरि, जिनवल्लभसूरि के साथ बताई थी, जो असंगत प्रतीत होती है । इसीलिए नवीन संस्करण में सम्पादक ने उसका परिमार्जन कर दिया है ।
कल्याणकमल -- आपका एक गीत ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में जिनचंद्रसूरि गीतानि के अन्तर्गत २५वें अनुक्रम पर संकलित है । यह २५वें अनुक्रम में १३वाँ गीत है । राग धन्यासिरी मारुणी राग में आबद्ध यह ८ कड़ी की रचना है । इसकी भाषा सरल हिन्दी है
यथा
सुगुरु मेरइ जीवउ चउसाल,
खम्भायत दरिया की मच्छली बोलत बोल रसाल ।
इससे लगता है कि यह रचना खम्भात में हुई होगी और इस गीत की रचना श्री जिनचन्द्रसूरि के समय अर्थात् १७वीं शताब्दी में हुई होगी।
कल्याणकलश – आपने सं० १६९३ में 'चंदनमलयागिरि चौपइ' की रचना मरोठ नामक स्थान में की। इसकी प्रति केसरियानाथ भण्डार, जोधपुर में सुरक्षित है । प्रति देख न पाने के कारण अधिक विवरण देना संभव नहीं हुआ ।
कल्याणकीर्ति -- आप दिगम्बर साधु देवकीर्ति के शिष्य थे । आप भीलोड़ा ग्राम निवासी थे और वहीं के विशाल जैन मंदिर में बैठकर
१. जैन गुर्जर कविओ भाग ३ ( नवीन संस्करण) पृ० २६४
२. श्री अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ० ८५
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