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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
७७ गई तो भी दोनों में दोनों के एकाध प्रयोग अनजाने आ ही गये हैं किन्तु वि० सं० १५०० के पश्चात् की रचनाओं को देखने पर निश्चित हो जाता है कि इस समय तक संक्रान्तिकालीन स्थिति समाप्त हो चली थी और देशी भाषाओं का अपभ्रंश से पूर्ण विकास हो चुका था। उकार बहुला प्रवृत्ति प्रायः हट गई थी, तत्सम का प्रयोग बढ़ गया था, क्रियाओं का स्वतन्त्र विकास हो रहा था फिर भी अनुस्वार और रे का प्रयोग अपभ्रंश के अवशेष रूप में यत्र-तत्र दष्टिगोचर हो जाते हैं जैसे 'आव्यो मास असाढ झबूके दामिनी रे।' या नरेन्द्र फणीन्द्रं सुरेन्द्रं (पार्श्वनाथस्तोत्र) में 'रे' और अनुस्वार का दर्शन सुन्दर ढंग से होता है। स और 'श' का मनमाना प्रयोग अब भी मिल जाता है । दर्शन का दरसन और परमेश्वर का परमेसुर आदि साथ-साथ प्रयुक्त हो रहे थे। संयुक्त वर्णों को स्वर विभक्ति द्वारा पृथक करके प्रयोग करने की प्रवत्ति भी दिखाई देती है जैसे शब्द का सबद, प्रत्यक्ष का परतछ, निर्जरा का निरजर आदि रूप प्रचलित था। संयुक्त वर्गों में से एक वर्ण हटाकर सरलीकरण की प्रवत्ति बढ गई थी जैसे स्थान के लिए थान, द्युति के लिए दुति, ऋद्धि के लिए रिधि, मोक्ष के लिए मोख और अमृत के लिए अमी से काम चलाया जाता था। ___इस काल की काव्यभाषा पर ब्रजभाषा, खड़ी बोली और उर्दू का भी प्रभाव दिखाई पड़ता है । १५वीं शताब्दी के पश्चात् की लिखी गई दिगम्बर कवियों की रचनायें अधिकतर हिन्दी में मिलती हैं; श्वेताम्बर कवियों ने हिन्दी मिश्रित राजस्थानी या हिन्दी मिश्रित गुजराती का प्रयोग किया है. जिसे हम तीनों भाषाओं की समान सम्पत्ति समझते हैं और उसे एक शीर्षक मरुगुर्जर से अभिहित करते हैं। अब तक यह स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है कि अपभ्रंश से मरुगुर्जर और तत्पश्चात् राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती का क्रमिक विकास हुआ है। यह प्रयत्न इस आम धारणा पर आधारित है कि एक परिवार या कूल की भाषायें किसी एक आदि भाषा से विकसित होती हैं । 'आत्मा वै जायते पुत्रम्' का सिद्धान्त मानने वाले विद्वान् भाषाओं पर भी इस नियम को अक्षरशः लागू करना चाहते हैं किन्तु यह भूल जाते हैं कि यदि पुत्र पिता से कुछ विरासत में गुण पाता है तो कुछ का वह परिवेश से अपने व्यक्तित्व में स्वयं विकास करता है और वह पिता से भिन्न व्यक्ति पुकारा जाता है। मरुगुर्जर भाषा एक योग्य सन्तान की तरह वंश परम्परा को सम्यक् रूप से थोड़ा तान कर अपभ्रंश को आगे पहुँचा देती है लेकिन वह हू-ब-हू अपभ्रश की नकल नहीं है ।
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