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________________ ७६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास महापंडित राहुल ने स्वयंभू की रचना को हिन्दी की रचना घोषित किया है और अनेक समानान्तर हिन्दी रूपान्तर देकर उसकी हिन्दी से समीपता सिद्ध की है किन्तु इस समीपता के आधार पर दोनों को एक भाषा नहीं स्वीकार किया जा सकता। श्री कामता प्रसाद जैन ने देवसेन के दर्शनसार, तत्त्वसार और सावयधम्मदोहा की भाषा का उदाहरण देकर अपभ्रंश से पुरानी हिन्दी का विकास समझाया है और यह उचित पद्धति है उनका एक उदाहरण देखिये : 'सह धम्म जो आयरइ चउ वण्ण मह कोई सो णरणारी भव्वयण सुरइय पत्वह सोइ।' इसका हिन्दी रूपान्तर देखिये :___ 'एह धर्म जो आचरे चतुर्वर्ण में कोय, सो नरनारी भव्य जन सूरगति पावे सोय ।' इसी प्रकार मुनिराम सिंह के पाहुड़दोहा से एक दोहा देखिये 'मढ़ा देहम रज्जियइ, देह ण अप्पा होय, देहहि भिण्णउ णाणमउ सो त आत्मा जोय ।' इस दोहे में व्यञ्जन लोप और ण के प्रयोग का आग्रह छोड़कर यदि देखा जाय तो यह पुरानी हिन्दी का नमूना सिद्ध होता है । इसका रूपान्तर देखिये : 'मूढ़ देह में रंजित होते, देह न आत्मा होय । देह से भिन्न ज्ञानमय, सो तू आत्मा जोय ।' दोनों में कितनी समानता है। पद्मदेव ने तो अपनी रचना 'पासणाहचरिउ' की भाषा को देशी भाषा ही कहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपभ्रंश और देशी भाषा में रचनायें समानान्तर होती रहीं। जिनदत्तसूरि की 'चर्चरी' में अपभ्रंश के साथ मरुगुर्जर के प्रयोग स्पष्ट रूप से मिलते हैं। उनके उपदेशरसायन में अवश्य अपभ्रंश की ओर झुकाव अधिक प्रतीत होता है। जिनपद्मसूरि के 'घूलिभद्दफाग' में देशी भाषा के तत्त्व अधिक मिलते हैं, उदाहरणार्थ दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं 'सीयल कोमल सुरहिवाय जिस जिम वायंते, भाउ मडफ्फर माणणिय तिम तिमनाचंते ।' इस प्रकार १३वीं शताब्दी से १५वीं शताब्दी तक अपभ्रंश और देशी भाषाओं का काव्य भाषा के रूप में मिला-जुला प्रयोग होता रहा । यदि कभी कोई रचना केवल अपभ्रश या में कोई केवल मरुगुर्जर में आग्रहपूर्वक लिखी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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