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________________ मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैनाचार्यों की भ्रमणशील वृत्ति के कारण इनकी भाषा में गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी के अतिरिक्त सिंधी, पंजाबी और उर्दू के शब्द भी कहीं मिल जाते हैं । यह प्रत्येक काव्यभाषा को विशेषता रही है । व्रजभाषा में भी षमाषा के शब्द मिलते हैं । संस्कृतज्ञ आचार्यों की भाषा तत्सम प्रधान है । आधुनिक आर्य भाषायें संयोगात्मक से वियोगात्मक हो गई थीं। जूनी गुजराती, पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर में भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट लक्षित होती है । स्वरों में ऋ का प्रयोग केवल संस्कृत के तत्सम शब्दों में ही मिलता है और उसका उच्चारण भी 'रि' जैसा होता है । इसी प्रकार ऐ, और औ का उच्चारण संस्कृत के अइ, अउ जैसा न होकर अए, अओ में परिवर्तित हो गया है । व्यञ्जनों में 'श' और 'ष' का भेद उच्चारण में मिट गया । व्यञ्जनों के स्थान पर स्वरों का प्रयोग इसकी एक अन्य प्रमुख विशेषता है जैसे ललितांग का ललिअंग, चंपकगोरी का चंपइगोरी आदि रूप बहुत प्रयुक्त हैं । आदिस्वर, मध्यस्वर और अन्त्यस्वर लोप की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश की तरह मरुगुर्जर में भी खूब मिलती है । व्यञ्जन समीकरण चरमसीमा पर पहुँचकर उत्तर काल में एक ही व्यञ्जन दीर्घ उच्चरित होने लगा था । अद्य >, अज्ज, आज >, कर्म > कम्म, काम आदि इसके उदाहरण हैं | स्वार्थक प्रत्यय 'अ' अल, इल्ल की चर्चा पहले की जा चुकी है जैसे अलंकृत का अलंकियु या अलंकियउ रूप मिलता है । ७४ क्रियाओं में चार लकार रह जाने से धातुरूपों की जटिलता बहुत कम हो गई । वाक्यों में शब्द और पद योजना भी अपभ्रंश जैसी मिलती है किन्तु तद्भवों के स्थान पर तत्सम की प्रवृत्ति १०वीं शताब्दी से ही शुरू हो गई थी । क्रिया और विभक्तियाँ वहीं रहीं । अतः इस काल में दोनों रूप मिलते हैं जैसे मदन और मयणु, चरित्र और चरित्र, साथ ही नमस्कार, रवि, कमल आदि शब्द भी भट्टारकों की भाषा में बार-बार आने लगे । अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी में अनुस्वार की भी एक मुख्य प्रवृत्ति है । इसके तीन कारण आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बताये है : संस्कृत की गमक पैदा करने के लिए संस्कृतज्ञ पंडित शब्दों में अनुस्वार जड़ देते थे । दूसरा और तीसरा कारण छन्द और मात्रापूर्ति से सम्बन्धित है किन्तु इसका भी भाषा के स्वरूप पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । पदान्त के 'ओ' को ह्रस्व करने का उदाहरण 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' के निम्न उदाहरण में देखा जा सकता है : : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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