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________________ ७३ मरु-गुर्जर की निरुक्ति की भाषा के करीब है। इनकी विधायें भी लोक साहित्य से ली गई हैं जैसे चर्चरी, फागु इत्यादि । पश्चिमी अवहट्ट में लिखा गया साहित्य ही मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी का साहित्य है। आ० हेमचन्द्र ने प्रचलित काव्यभाषा को अपभ्रश कहा है। उस भाषा का नाम गुजराती, राजस्थानी जैसा देशपरक इसलिए वही रखा गया क्योंकि वह एकदेशीय नहीं बल्कि समस्त उत्तर भारत की काव्य भाषा थी। इसका परवर्ती विकसित रूप मरुगुर्जर भी एकदेशीय न होकर हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी की मिली जूली सम्पत्ति है, अतः इसे पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर नाम दिया गया है । मरुगुर्जर की कृदन्त तद्भव क्रियाओं के अधिकांश रूप 'उ'कारान्त हैं जो अपभ्रंश की उकार बहुल प्रवृत्ति का प्रभाव है जैसे 'बनते बन छिपतउ फिरउ गव्हर बनहं निकुंज' भूखउ भोजन मांगिबा गोवलि आवउ मुञ्ज । (भोजप्रबन्ध) कहीं-कहीं कर्ता और कर्मकारक की विभक्ति रूप में भी 'उ' का प्रयोग मिलता है जैसे 'गुरु गौतम को देउ पसीउ' कर्म में 'उ' विभक्ति का यह प्रयोग कवि चतरु का है। प्रत्ययों में अ, रे' और डी का बहुप्रयोग भी अपभ्रंश की देन है यथा___ 'रोग रहित सुखी रे संपदा पूरण ठाण। धर्म बुद्धि मन शुद्ध डी, दुलहा अनुक्रमि जाण ।' (तत्त्वसार) 'हि' और 'हिं' विभक्ति का व्यापक प्रयोग सभी कारकों में होने लगा जैसे 'जिनवर स्वामी मुगतिहिं गामी सिद्धि नयर मंडणो।' (ब्रह्म जिनदास) कहीं 'हि' के ह' का लोप करके केवल 'इ' का प्रयोग और कहीं पर इ को ए करके प्रयोग भी किया गया है जैसे 'मंगल कमला कुदुए, सुखसागर पूनिम चुदए ।' (मेरुनन्दन) दीर्घ को लघु बनाने की प्रवृत्ति एक अन्य विशेषता मरुगुर्जर की दिखाई पड़ती है। जैसे सरस्वती का सरसई या सरसति, श्री का सिरि, अमृत का अमिय आदि रूप इसके अनेक उदाहरण हैं । वर्णों के संकोचन की प्रवृत्ति भी अपभ्रश से मरुगुर्जर को विरासत के रूप में मिली जैसे स्थान के लिए ठाण, मयूर के लिए मोर का प्रयोग इसी प्रवृत्ति का नमूना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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