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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
चढ़ाने का उल्लेख है। बेताल उसे ग्रहण नहीं करता क्योंकि वह केवल साधक के साहस की परीक्षा कर रहा था। इन लोगों ने तंत्रसाधना के कमजोर पक्ष को छोड़कर केवल उसकी अच्छाइयों को ही ग्रहण किया। पाहुड़दोहा में आत्मज्ञान को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है, जिसके लिए इन्द्रियों का दमन और योग साधना आवश्यक बताया गया है।
जैन देवमंडल तथा पूजन-जैनधर्म में मंदिरों और मूर्तियों का महत्त्व काफी था। इनके निर्माण में जैनकला का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। जैनधर्म के चौबीसों तीर्थङ्करों की मूर्तियों के निर्माण और मंदिरों में पूजनपद्धति का विस्तृत विधान बताया गया है । लक्ष्मीधर ने कापालिकों के साथ तांत्रिक दिगम्बरों की भी गणना की है जिससे थोड़ी शक्तिपूजा का प्रचलन भी प्रतीत होता है। श्वेताम्बर मत में प्रत्येक तीर्थङ्कर की शासन देवता, चक्र श्वरी, कालिका, महाकाली आदि का भी पूजन प्रचलित था। संयम प्रधान तथा आचारवादी होने के कारण बौद्धधर्म की तरह विकृत देवीदेवताओं की पूजा यहाँ न तो पनपी और न जैन साधु संयम एवं तपश्चर्या के आदर्श से विचलित हुए। अतः इन्होंने जनमानस को अधिक आकृष्ट किया। साधओं के अतिरिक्त श्रावकों के लिए भी आचार नियम थे। इनमें कई सम्पन्न व्यापारी और अनेक बड़े राज्यकर्मचारी तथा मंत्री आदि भी होते थे और अपने आचरण तथा प्रभाव से धर्म की प्रभावना में योगदान करते थे।
राजदरबारों में प्रायः कवि और चारण अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति और नायिकाओं की सुन्दरता का बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया करते थे किन्तु जैन लेखकों ने इन सबको पृष्ठभूमि में रखकर शान्तरस को साहित्य में सर्वोपरि स्थान प्रदान किया। इन तमाम बातों को ध्यान में रख कर ही जैन साहित्य का अध्ययन किया जाना सार्थक हो सकता है।
मरु-गुर्जर भाषा का विकास-अपभ्रंश के बाद मरुगुर्जर भाषा का विकास हुआ है अतः इसमें अपभ्रंश की अनेक विशेषताओं को देखा जा सकता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि में मरुगुर्जर की आद्यस्थिति का संकेत कुवलयमाला (उद्योतन), प्राकृत पैंगलम्, संदेशरासक (अद्दहमाण), उक्तिव्यक्तिप्रकरण (दामोदर पंडित), वर्णरत्नाकर (ज्योतिरीश्वर ठाकूर) आदि में ढढ़ा जा सकता है किन्तु जैन साहित्य में एतद्विषयक प्रचर सामग्री भरी पड़ी है। टेसीटोरी ने बताया है कि जैन साहित्य की भाषा यथासंभव जनता
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